Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 98
________________ ( ९० ) दुर्जन वचन चपेटां मिष्ठुर कटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः । कमल नाशनार्थं भावेन च निर्ममा श्रमणाः ॥ अर्थ - सज्जन मुनीश्वर निर्ममत्व होते हुए दुर्जनों के निर्दय और कटुक बचन रूपी चपेटों को कर्म रूपी मल के नाशने के अर्थ सहते हैं । पावं खवइ असतं खमाइ परिमण्डि ओय मुणिप्पवरो । खेयर अमर णराणं पसंसणीओ धुवं होई || १०८ ॥ पापं क्षिपति अशेषं क्षमया परिमण्डितश्च मुनिप्रवरः । खेचरामरनराणां प्रशंसनीयो ध्रुवं भवति ॥ अर्थ - जो मुनिवर क्षमा गुण कर भूषित है वह समस्त पाप प्रकृतियों का क्षय करें हैं और विद्याधर देव तथा मनुष्यों कर अवश्य प्रशंसनीय होता है । इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं । चिर संचय को सिहीं वरखमसलिलेणसिंचेह ॥ १०९ ॥ इति ज्ञात्वा क्षमागुण क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् । चिर संचित क्रोध शिखिनं वरक्षमा सलिलेन सिञ्च ॥ अर्थ- हे क्षमा धारक ऐसा जान कर मन वचन काय से समस्त जीवों पर क्षमा करो, और बहुत काल से एकी हुई क्रोध रूप अग्नि को उत्तम क्षमा रूप जल से बुझाओ । दिक्खा कालाईयं भावहि अवियार दंसणविसुद्धो । उत्तम वोहिणिमित्तं असार संसार मुणि ऊण ॥ ११० ॥ दीक्षाकालादीयं भावय अविचार दर्शन विशुद्धः । उत्तम वोधि निमित्तम् असार संसारं ज्ञात्वा ॥ अर्थ- हे निर्विकीतुन सम्यग्दर्शन सहित हुए संसार की असारता को जान कर दीक्षा काल आदि में हुए विराग परिणामों को उत्तम बांधि की प्राप्ति के निमित्त भाषो । भावार्थ मनुष्य दीक्षा

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