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( ४४ ) अर्थ- कार्तिककी श्रमावस्या के पूर्वापहमें वीर मरण करके बे मुनि, आर्यिका श्रावक श्राविका, सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। वहां मुनि की एक सागर और शेष तीनों की आयु कुछ अधिक पल्प प्रमारण होगी ।
तब्बासरस्स आदीमज्भले धम्मराय अग्मीरणं ।
खास तत्तो मण्डला लागा मच्छादि आहारा ॥ ८६१ ॥
यानी
-उस दिन प्रातः धर्म का, दोपहर को राजा का तथा सायं (शाम की) श्रग्नि का नाश हो जावेगा । मनुष्य नंगे फिरने लगेंगे और मछली आदि खाकर भूख मिटावेंगे ।
योग्गल इस खादो जलणे धम्मे गिरासर हदे ।
सुरवइणा गरिदे सयलो लोम्रो हवे अन्धो ॥ ६३२||
अर्थ--:
-उस समय लकड़ी श्रादि ज्वलनशील पदार्थ अत्यन्त रूखे होने के कारण अग्नि नहीं जलेगी । धार्मिक जन न रहने से धर्म निराश्रित हो जाने से नष्ट हो जावेगा और असुर इन्द्र द्वारा अन्यायी राजा का मरण हो जाने पर समय ती पथ ऋष्ट (श्री) हो जावेगी ।
एस्थ मुदारियदुगं रियतिरक्याद जगासमेत्य हवे ।
यो जलदाइमेहा भू रिंगसारा रारा तिब्बा ||८६३ ॥ त्रिलोकसार | अर्थ -- उस समय मरकर जीन पहले दूसरे नरक में जावेंगे और नरक पशु से निकले हुए जीव ही यहां उत्पन्न होवेंगे। बादल थोड़ा जल बरसावेंगे, पृथ्वी निस्सार हो जावेगी और मनुष्य तीव्र कषायी हो जावेंगे । अस्तु मिरचीस कक्की उवकषको तेत्तिया य धम्मारण ।
सम्मति धम्मदोहा जलरिगहि उनमारण आइजुदा ॥। १५३४ ॥
-तिलोय पण्णत्ती इस प्रकार धर्म द्रोही २१ कल्की और २१ उपकल्की मर कर पहले नरक में पैदा होते हैं वहां एक सागर की उनकी श्रायु होती है ।
चतुस्त्रिंशदतिशयाः ||६॥
अर्थ - तीर्थंकरों के ३४ अतिशय होते हैं ।
असाधारण व्यक्तियों से जो विलक्षण प्रद्भुत बातें
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होती हैं उन्हें अतिशय कहते हैं । ऐसे अतिशय तीर्थंकरों के जन्म के समय १० होते हैं और केवल ज्ञान हो जाने के अनन्तर १० अतिशय स्वयं होते हैं तथा १४ अतिशय देवों द्वारा सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार समस्त ३४ अतिशय होते हैं ।
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