Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

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Page 387
________________ ( * ) पानी में रख देने से अपने चारों ओर के पानी को खींच लेता है, उसी प्रकार आत्मा अपने चारों ओर की नोकर्म पुद्गल वर्गणाओं को खींच लेता है । यही आहार कहलाता है । उस नोकर्म वर्गरगा का श्राहार मिध्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली भगवान तक होता है। कुछ लोग इसका अर्थ विपरीत समझकर सर्वश भगवान "कवलाहार करते हैं" ऐसा कहते हैं, सो गलत है। आहार के भेद बतलाते है: -- दि नोकम्मकरमहारो कवलाहारो य लेप्यमाहारो । श्रोजमरतोव य कमसो श्राहारो छबिहो पोयो ॥ ३२ ॥ मोकम्मकम्महारो जोवारणं होदि चउमइगयारणं । फलाहारो नरपसु रुक्खे तु य लेप्पमाहारो ॥३३॥ पवीण प्रोजहारो अंडयमज्भेसु बड्ढमानारणं । बेवेस मनोहारो चविसारपट्टिदी केवलिरणो ॥ ३४ ॥ नोकम्मकरमहारो उदियारेण तस्स प्रायामे । भणियानह णिच्चयेन सो विहुलिया वापारो जम्हा | ३५ | 'अर्थ प्रहार छह प्रकार का होता है - १ - नोकर्यं श्राहार, २ कर्माहार, ई-कलाहार, ४ - लेप्याहार, ५ - श्रीजाहार, ६ - मानसिक शाहार | इनमें से नोकर्मधाहार ( शरीर के लिये नोकर्म वर्गरणाओं का ग्रहण) तथा कर्माहर ( कर्म का प्राव) तो छारों गतियों के जीवों के होता है । कबलाहार (मुख मिटाने के लिए अन्न फल आदि का भोजन) मनुष्य और पशुओं के होता है । वृक्षों के लेप्याहार (जल मिट्टी का लेप रूप खाद ) होता है । अण्डे में रहनेवाले पक्षी आदि का भोजाहार ( अपनी माता के शरीर की गर्मी-सेना ) होता है । देवों के मानसिक प्रहार ( भूख लगने पर मन में भोजन करने का विचार करते ही गले में से अमृत भरता है और भूख शान्त हो जाती है ) होता है अनाहारक ( शरीर और पर्याप्तियों के लिए श्राहार वर्गरणा ग्रहण न करने वाले जीव ) कौन से होते हैं सो बतलाते हैं - — विग्गगमावण्णा केवलिणो समुग्धदो प्रजोगी य। सिद्धा य प्रणाहारा सेसा श्राहारया जीवा । " यानी एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करने के लिए जाने वाले विग्रहगति वाले चारों गति के जीव, प्रतर और लोकपूर्ण समुद्घात वाले केवली तथा (सिद्ध परमेष्ठी अनाहारक होते हैं, शेष ग: जीव आहारक होते हैं !

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