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रोके रखने वाला मनुष्य प्रायु है और देव पर्याय में रोक रखने वाला देवायु कर्म है।
द्विचत्वारिंशद्विधं नाम ।५६। नाम कर्म के ४२ भेद हैं । जैसे-गति, जाति, शरीर, बंधन, संघात, संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, प्रानुपूर्वी, प्रगुरुलघु, उपधात परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास निःश्वास, विहायोगति, बस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक अपर्याप्तक प्रत्येक शरोर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, प्रादेय, अनानेय, यशकीर्ति, प्रयशकोति, निर्माण तथा तीर्थंकर नाम से पिंडापिड प्रकृति भेद रूप नाम कम के ४२ भेद है।
विशेषार्थ-जिसके उदय से जीव दूसरे भव में जाता है उसे गति कहते हैं । अगले चार लेन -रस गति, साति, मनुष्य गति और देव गति । जिसके उदय से जीव के नारक भाव हों वह नरक गति है। ऐसा ही अन्य गतियों का भी स्वरूप जानना। उन नरकादि गतियों में अव्यभिचारी समानता के आधार पर जीवों का एकीकरण जिसके उदय से हो वह जाति नाम कर्म है। उसके पांच भेव हैं--एकेन्द्रिय जाति नाम, दो इन्द्रिय जाति नाम, तेइन्द्रिय जाति नाम, चौ इन्द्रिय जाति नाम और पंचेन्द्रिय जाति नाम । जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है यह एकेन्द्रिय जाति नाम है। इसी तरह शेष में भी लगा लेना। जिसके उदय से जीव के शरीर की रचना होती है वह शरीर नाम है। उसके पांच भेद हैं- औदारिक शरीर नाम, वैऋियिक शरीर झाम, आहारक शरीर नाम नाम, तेजस शरीर नाम भौर कामरा शरीर नाम । जिसके उदय से औदारिक शरीर की रपमा होती है वह मादारिक शारीर नाम है, इस तरह शेष को भी समझ लेना। जिसके उदय से अंग तथा उपांग का भेद प्रकट हो वह अंगोपांग नाम कर्म है। उसके तीन भेद हैं-प्रौदारिक शरीर मगापांग नाम; वैक्रियिक शरीर अंगोपांग नाम, पाहारक शरीर अंगोपांग नाम। जिसके उदय मे अंग उपांग की रचना हो वह निर्माण है । इसके दो भेद हैं-स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण | निर्माण भाम कर्म जाति के उदय के अनुसार चक्षु प्रादि की रचना नाम कर्म के उदय से ग्रहण किये हुये पुद्गलों का परस्पर में मिलना जिस कर्म के उदय से होता है वह बम्बन नाम है। जिसके उदय से प्रौदारिक पाधि पारीरों की प्राकृति बनती है वह संस्थान नाम है। उसके छ: मेव हैंजिसके उदय से ऊपर, नीचे तथा मध्य में शरीर के अवयवों की समान विभाग