Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

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Page 389
________________ ( -) यानी-गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, संज्ञा, गति, इन्द्रिय, काय, योग, येद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेण्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संशी, आहार, उपयोग इनको यथायोग्य गुणस्थानों तथा मार्गणाओं में प्ररूपण करना चाहिए। पुद्गलाकाशकालध्यास्रवाश्च प्रत्येकं द्विविधाः ॥४॥ अर्थ-पुद्गल, भाकाश, कालद्रव्य, और पानव प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं । पूरण और गलन स्वभाव वाला पुद्गल द्रव्य है इसके परमाणु और स्कन्ध ये दो भेद हैं । पुद्गल का सबसे छोटा टुकड़ा ( जिसका मोर टुकड़ा न हो सके ) परमारण है । परमाए में कोई एक रस, कोई एक गन्ध, कोई एक रंग और मखा, चिकना में से एक नन्दा दंडा, गर्म में से एक, इस तरह दो स्पर्श ये पांच गुण होते हैं । अनेक परमाणु प्रों का मिला हुमा पिण्ड स्कन्ध' कहलाता कहा भी है .. एयरसवण्णगंधा दो फासा खंध कारणमखंषं । संधतरिदं दव्ये परमाणु तं वियागाहि । पानी-एक रस, एक वर्ण, एक गंध, दो स्पर्श घाला परमाणु होता है वह स्वयं स्कन्ध नहीं है किन्तु स्कन्ध का मूल कारण है। दो परमारणओं का स्कन्ध नि-अणुक कहलाता है । अनन्त परमारण मों का पिण्ड प्रवसनासन्न होता है । ८ अबसन्नासन्न का एक सन्नासन, ८ सन्नासन्न का एक प्रसरेणु, ८ त्रसरेणु का एक रथरेणु, ८ रभरेणु का एक उत्तमभोगभूमिज के बाल का प्रमभाग, उन पाठ बालाग्र भागों का एक मध्यम भोगभूमिजका एक बालाग्र भाग, उन ८ बालान भागों का जघन्य भोगभूमिज का बालान भाग, उन ८ बालाग्र भागों का एक कर्मभूमिज का बालाग्र भाग होता है। उन आठ बालाग्र भागों की एक लोख होती है, पाठ लीखों को एक सरसों, ८ सरसों का एक जौ, ८ जो का एक उत्सेधांगुल होता है । जीवों के शरीर को अचाई, देवों के नगर; मन्दिर प्रादि का परिमाण इसी अंगुल के अनुसार होता है । ५०० उत्सेधांगुल का एक प्रमाणागुल (भरत क्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती का नगुल) होता है । प्रमाणीगुल के अनुसार महापर्वत, नदी, द्वीप, समुद्र आदि का परिमाण बतलाया गया है । अपने अपने काल के अनुसार भरत ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों का जो मंगुल होता है, उसे आत्मागुल कहते हैं । इस अंगुल से झारी, कलश, धनुष, ढोल, छत्र आदि का परिमारण बतलाया जाता है। ६ अंगुन का एक पाद, २ पाद को एक बालिस्त, २ मालिस्त का एक हाथ, ४ हाथ

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