Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

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Page 369
________________ כי ( ३५७ ) श्रवयिकमेकविंशतिर्भेदः ||२१|| जो भाव कर्मों के उदय से होते हैं वे प्रदयिक भाव है, संक्षेप से उनके २१ भेद हैं । १ - मनुष्यगति, २ - देवगति, ३ – तिर्यञ्चगति, ४ – नरकगति, ५-क्रोध, ६ - मान, ७ - माया, ८ – लोभ, ६ - पुरुषवेद, १०- स्त्री वेद, ११नपुंसक वेद १२ - मिथ्यात्व १३, अज्ञान, १४ - असंयम, १४ प्रसिद्ध, १६ कृष्ण, १७ – नील, १८ कापोत, १६-पीत २० - पद्म, २१ - शुक्ल ( लेश्या) ये नाम कर्म, मोहनीय, कर्म ज्ञानावरण, तथा सर्व सामान्य कर्मों (प्रसिद्ध ) के उदय होने से होते हैं । पारिणामिक स्त्रिविध : ॥२२॥ श्रात्मा के जो स्वाधीन स्वाभाविक ( कर्म-निरपेक्ष ) भाव होते हैं वे पारिणामिक भाव हैं । उसके ३ भेद हैं । १ - जीवत्व, २ – भव्यत्व, ३अभव्यत्व | चेतनामयत्व जीवत्व है। मुक्त हो सकने की योग्यता भव्यत्व है और मुक्ति प्राप्त न हो सकने योग्य की योग्यता श्रभव्यत्व है । गुणजी मार्गणस्थानानि प्रत्येकं चतुर्दशः ||२३|| अर्थ – गुरणस्थान, जीवस्थान और मार्गणा ये तीनों प्रत्येक १४-१४ प्रकार के हैं । मिन्छोसासण मिस्सो अबिरदसम्मो य देसविरदो य । विरता पमस इदरो अपुष्य प्रालियट्ट सुमो य जवसंतीणमोहो सजोगकेवलिजिणो प्रजोगो य । चउदस ओवसमासा कमेण सिद्धा य णावया || " अर्थ - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्त, श्रप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तमोह, क्षोरामोह, सयोगकेवली, श्रयोग केवली, ये १४ गुणस्थान हैं। मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से तथा योगों के कारण जो जीव के भाव होते हैं उनको गुरणस्थान कहते हैं । शुद्ध बुद्ध अखण्ड अमूर्तिक, अनन्तगुरण-सम्पन्न श्रात्मा का तथा वीतराग सर्वज्ञ अर्हत भगवान प्ररूपित तत्व, द्रव्य पदार्थ, महंत देव, निर्ग्रन्थ गुरु तथा जिनवाणी की श्रद्धा न होना, मिथ्यात्व गुणस्थान है । यह मिध्यास्व कर्म के उदय से होता है। एकान्त, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान रूप भाव इस गुणस्थानवर्ती के होते हैं।

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