Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 370
________________ (३५८ ) अनन्तानुबन्धी • सम्बन्धी क्रोध पत्थर पर पड़ी हुई लकीर के समान दौर्घकाल तक रहनेवाला, मान पत्थर के स्तम्भ के समान न झुकनेवाला, एक दूसरे में गुयी हुई बांस की जड़ों के समान कुटिल माया और मजीठ के रंग के समान अमिट लोभ होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व - वाले व्यक्ति के जब इनमें से किसी भी कषाय का उदय हो जावे तब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है किन्तु (कम से कम) एक समय और अधिक से अधिक ६ प्रावली काल प्रमाण जबतक मिथ्यात्व का उदय नहीं हो पाता उस बीच की दशा में जो प्रात्मा के परिणाम होते हैं वह सासादन गुणस्थान है। जैसे कोई मनुष्य पर्वत से गिर पड़ा हो किन्तु जब तक पृथ्वी पर न पहुंच पाया हो। सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिले हुए मिश्रित परिणाम होते हैं जैसे दही और खांड मिला देने पर एक विलक्षण स्वाद होता है जिसमें न दही का स्वाद प्राता है, न केवल खांड का ऐसे ही मित्रगुणस्थान वाले के न तो मिथ्यात्व रूप ही परिणाम होते हैं, न केवल सम्यक्त्व रूप' परिणाम होते हैं किन्तु दोनों भावों के मिले हुए विलक्षण परिणाम हुआ करते हैं । इस गुणस्थान में न तो कोई प्रायु बन्धती है और न मरण होता है; जो प्रायु पहले बांध ली हो उसो के अनुसार सम्यक्त्व या मिथ्यात्व भाव प्राप्त करके मरण होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व “मोर सम्यक् प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से, क्षय होने से था क्षयोपशम होने से जो उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है किन्तु अप्रत्याख्यानावरण के उदय से जिसको अणुव्रत भी नहीं होता वह अविरत सम्पग्दृष्टि गुणस्थान है। यानी-प्रत 'रहित सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान वाला होता है । इस गुणस्थान-वाला सांसारिक भोगों को विरक्ति के साथ भोगता है। सम्यग्दृष्टि जीव को जब अप्रत्याख्यानावरण कषाय, जिसका कोष पृथ्वी की रेखा के समान होता है, के क्षयोपशम से अणुब्रत धारण करने के परिगाम होते हैं तब उसके देशविरत नामक पांचवां गुरास्थान होता है । यह पांच पापों का एक देश त्याग करके ११ प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा का वारिष पालन करता है। दंणवय सामाइय पोसह सचित्तराइभत्तं य । बम्भारम्भपरिग्गह अणुमणमुद्दिष्ट देसविरदो य ॥ 211,

Loading...

Page Navigation
1 ... 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419