Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

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Page 376
________________ के मन के विना प्राण होते हैं । चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय जीवों के क्रम से एक-एक इन्द्रिय कम होते जाने से 5, ७,६ प्राण होते हैं। एकेन्द्रिय जीवके रसना इन्द्रिय और बचन बल न होनेसे चार प्राण ही होते हैं । अपर्याप्तक संज्ञी असंज्ञी पंचेन्द्रिय के मन बल, वचन बल और श्वासोश्वास के बिना शेष ७ प्राण होते हैं। शेष चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, वो इन्द्रिय, एकेन्द्रिय जोवों के ए-एक इन्द्रिय कम होते जाने से क्रम से ६-५-४-३ प्रारा होते हैं। __ चतुरस्रः सज्ञाः ।।२।। अर्थ-जिनसे व्याकुल होवार जीव दोनों भवों में दुख पाते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं । संज्ञा ४ हैं.-१आहार (भोजन करने की इच्छा) २ भय, ३ मैथुन (काम वासना) ४ सांसारिक पदार्थो से ममता रूप परिग्रह । रगट्ठपमाए पढमा सणगा गहि तत्थ कारणभावा । सेसा कम्मत्थित्ते गुवयारेगस्थि राहि कज्जे ॥२६॥ यानी–असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा से होने वाली पाहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक होती है, उसके आगे अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में आहार संज्ञा नहीं होती। शेष तीन संज्ञाएं वहां उनके कारण-भूत कर्मों की सत्ता होने से उपचार से मानी गई हैं, कार्यरूप नहीं होती है, अन्यथा उन अप्रमत्तादि गुण* स्थानों में शुक्लध्यान नहीं हो सकता । गतिश्चतुविधा ॥३०॥ अर्थ—गति चार प्रकार की है-१ नरकगति, २ तिर्यञ्च गति, ३ मनुष्य गति और ४ देव गति । गति नाम कर्म के उदय से होने वाली पर्याय को तथा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। जीव एक शरीर छोड़ कर दूसरे शरीर में गति नाम कर्मके उदय से जाता है, वहां पहुंचने पर गति नाम कर्म प्रात्मा को उस पर्याय रूपमें रखता है। ___ पंचेन्द्रियाणि ॥३१॥ अर्थ--इन्द्रिय पांच हैं-१ स्पर्शन (चमड़ा त्वचा), २ रसना (जीभ), ३ घ्राण (नाक), ४ नेत्र (प्रखि) और ५ कर्ण. (कान) ! आत्मा जिसके द्वारा मतिज्ञान से जानता है या जो आत्मा के चिन्ह हैं (इन्द्रः आत्मा, तस्य लिंग-चिन्ह-इन्द्रियम्)उसे इन्द्रिय कहते हैं। शरीर में जो भांख नाक कान जीभ आदि हैं वह द्रव्येन्द्रिय हैं, उन स्थानों पर जो आनने की शक्ति है यह भाव-इन्द्रिय है।

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