Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

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Page 375
________________ ( ३६५ ) 5 यानी - आहार शरीर, इति भाषा और मन ये ६ पर्याप्तियां हैं। एकेन्द्रिय जीव के पहली ४ और दो इन्द्रिय से श्रसैनी पंचेन्द्रिय तक के जीवों के मन के सिवाय शेष ५ तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के ६ पर्याप्ति होती हैं । एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर जिन नोकर्म वर्गणाओं से बनता है (जैसे गर्भाशय में रजवीर्य ) उन वर्गणाओं को खल ( गाढ़ा कठोर ) तथा रस रूप कर देने की शक्ति को बाहार पर्याप्ति कहते हैं । खल भाग को हड्डी रूप करने तथा रस भाग को खून बनानेरूप शक्ति को शरीर पर्याप्ति कहा गया है । इन्द्रिय रूप रचना की शक्ति को इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वास लेने निकालने की शक्ति को श्वास- उश्वास पर्याप्ति वचन रूप शक्ति को भाषा पर्याप्ति, तथा द्रव्यमनरूप बनाने की शक्ति को मन पर्याप्ति कहते हैं । ये पर्याप्तियां अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण हो जाती हैं, जिन जीवों की पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्तक कहे जाते हैं। जिनकी पर्याप्तियां पूर्ण नहीं होतीं; प्रधूरी होती हैं वे अपर्याप्तक होते हैं । अपर्याप्तक जीव दो प्रकार के हैं- १ निवृत्यपर्याप्तक - जिनकी पर्याप्तियां अधूरी हों किन्तु अन्तर्मुहूर्त में अवश्य पूर्ण होने वाली हों । २ लब्ध्यपर्याप्तक- जिनकी सभी पर्याप्तियां अधूरी रहती हैं, पूर्ण होने से पहले ही जिनका मरण हो जाता है । शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाने पर जीव पर्याप्तक माना जाता है । सभी पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है किन्तु पूर्णता क्रम से होती जाती है । दश प्रागाः ॥२८॥ अर्थ - प्राण १० होते हैं । पंचिवि इंदियपाणामरणवचिकाएसु तिथिष बलपारणा प्राणापाणप्पारणा आउगपाणेख होंति वसपारणा ||२३|| इंदियकायाकरिणम पुरषापुण्येसु पुण्गे श्रारणा । वोsदियादिपुण्ये बचो मरणो सणिपुण्य ॥ २४ ॥ दस सगीर पारणा से सागरांतिमस्स बेऊरगा । पज्जत्ते सिदरेसु यो सन्त बुगे सेसगेगूरखा ॥ २५ ॥ ल यानी - स्पर्शन, रसना, धारण, नेत्र, कर्ण ये पांच इन्द्रियां, मनबल, वचन काय बल, श्वासोश्वास और प्रायु ये १० प्राण होते हैं । इंद्रिय, काय श्रीर प्रायु ये तीन प्रारण सभी पर्याप्त, अपर्याप्त जीवों के होते हैं, स्वासोश्वास पर्याप्त जीव के ही होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के १० प्राण होते हैं, प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय I

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