Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

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Page 309
________________ ( २६७ ) इस प्रकार निरंजन पर रिणामिक भात में अविचल होकर भावना करने वाले भव्यजीवों को कर्मक्षय होकर मोक्ष प्राप्त होती है, ऐसा श्री ब्रह्मदेव का अभिप्राय है | अब पदस्थादि ध्यान त्रयके विषयभूत उपाध्याय परमेष्ठीका स्वरूप बतलाते हैं निश्चय व्यवहार सम्बन्धी काला चार विनयाचार उपाधानाचार बहुमानाचार निम्वाचार, व्यञ्जनाचार, अर्थाचार, श्रौरव्यञ्जनार्थाचार ये आठ ज्ञानाचार हैं निःशंकित निःकांक्षित, निविचिकित्सा, प्रमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये ८ प्रकार के दर्शनाचार हैं, १२ प्रकार के बाह्य ग्राभ्यन्तर तपाचार हैं, पांच प्रकार का वीर्याचार है, १३ प्रकार का चारित्राचार है, इस प्रकार के पंचाचार का आचरण शुद्धजीवद्रव्यस्वरूप छह द्रव्य, सात तत्व, पदार्थ में साभूत भेदाभेद रत्नत्रय के कारण भूत समयसार के बल से अनन्त चतुष्टयात्मक कार्य स्वरूप समयसार का उपदेश करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी का स्मरण करने से मोक्ष का कारण रूप पुण्यवृद्धि होती है ऐसा समझ कर निम्नलिखित रूपसे उपाध्याय परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये । 'निश्चयव्यवहार – अष्टविधज्ञानाचार स्वरूपोह, अष्टविधदर्शनाचारस्वरूपोहूं, द्वादशतपाचारस्वरूपोह, पंचविधवीर्याचारस्वरूपोहूं, त्रयोदशचारित्राचारस्वरूपोहं, क्षायिकज्ञानस्वरूपोहं क्षायिक दर्शन स्वरूपोहं, क्षायिक चारित्रस्वरूपोहं क्षायिकसम्यक्त्वस्वरूपोहं क्षायिकपंचलब्धिस्वरूपोहं परमशुद्धचिद्रपस्वरूपोहं, विशुद्धचैतन्यस्वरूपोहूं, शुद्धचित्कायस्वरूपोहूं, निज जीवतत्त्वस्वरूपोहूं, शुद्धजीवपदार्थस्वरूपोह, शुद्ध जीव द्रव्यस्वरूपोहूं, बुद्धजीवास्तिकायस्वरूपोह, इस प्रकार की भावना निश्चय सविकल्प आराधना है । इस प्रकार निर्विकल्प श्राराधना प्राप्त होती है ऐसा समझ कर अनन्त सुख की प्राप्ति के लिये निरुपाधि सहज आत्मतत्व के अनुष्ठान को करना चाहिये, ऐसा बालचन्द्र देव का अभिप्राय है शुद्धचैतन्य बिलास लक्षए निज आत्मतत्वरूचिरूप सम्यग्दर्शन में विचरण करना निश्चय दर्शनाचार है । निर्विकार परमानन्दरूप श्रात्मस्वरूप से भिन्न रागादि परभाव को भेद विज्ञान द्वारा पृथक जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है, उसी में लीन होना निश्चयज्ञानाचार है। शुद्ध श्रात्मभावना जनित स्वाभाविक सुख की अनुभूति में निश्चल होने वाली परिगति निश्चय सम्यक् चारित्र है, उसमें निरन्तर विचरना निश्चय चारित्राचार है । समस्त द्रव्यों की इच्छा के विरोध

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