Book Title: Shashti Shatak Prakaran
Author(s): Nemichandra Bhandari, Bhogilal J Sandesara
Publisher: Maharaja Sayajirav Vishvavidyalay
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षष्टिशतक प्रकरण ,
[मे.] अहंकार रूपीया विसना विकार तेहनइं उपशमाविवानइं काजि देवगुरुनी स्तुति कीजइ । कांई ? ते स्तवतां अहंकार जाइ । अनइ तेही जि देवगुरु हूंतउ जे अभिमान ऊपजइ तउ ही इसिइं खेदि ते पूर्वदुश्चरित्र पापनउं प्रमाण जाणिवउं ॥ १४४ ॥
5 [सो.] लोकना आचार करतउ जे आपणपउं जिनभक्त . कहावइ ते आश्री वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जे जैन आचारि करी बीजा जैनहूई न मिलई तेह जैनहूई ओलंभउ दिइ। जो जिणआयरणाए लोओ न मिलेइ तस्स आयारे । हा हा मूढ करंतो कह अप्पं भणसि जिणपणयं ॥१४५॥
[सो.] जो जिण. जिन श्रीवीतरागनी आचरणासिउं जे लोकनउ आचार न मिलई । मूढ मूर्ख ! ते आचार समाचरतउ हूंतउ आपणपू' जिनभक्त किम जिनभक्त कहं छं ? ' अन्नस्स कडि चडिओ, अन्नस्स वि होइ थणपाणं' ए लोकनउ उषाणउ साचउ करें 15छं ॥ १४५॥
- [जि.] अथ जे लोक जिननी आचरणाई करी तस्स तेह जिननइ आचारि न मिलई, जिननी आचरणा अनइं जिननउ आचार तेह बिहुंहूई भिन्नता जाणई । अनइं जिनाचरण-जिनाचारहूई भेद नही। हे मूह ! हा हा खेदे । भेद करतउ, लोकाचार करतउ हूंतउ आपणपउं 20जिनप्रणत जिनभक्त किमु भणइ, कांइं कहइ ? ॥ १४५॥
[मे.] जे जिननी आचरणाइं लोक न मिलई ते लोकनउ
१ आपणपुं. २ करुं छं.
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