Book Title: Sarasvatikanthabharanam
Author(s): Dhareshvar Bhojdev, Kedarnath Sharma, Vasudev L Shastri
Publisher: Pandurang Jawaji
________________ 5 परिच्छेदः / सरखतीकण्ठाभरणम् / 759 : प्रवर्तको यथा 'आसादितप्रकटनिर्मलचन्द्रहासः ___ प्राप्तः शरत्समय एष विशुद्धकान्तः / उत्खाय गाढतमसं घनकालमुग्रं रामो दशास्यमिव संभृतबन्धुजीचः // 510 // ' अवलगितं यथा,-अमुमेव शरत्समयमाश्रित्य गीयताम् , तथा इस्याम् 'सत्पक्षा मधुरगिरः प्रसाधिताशा मदोद्धतारम्भाः। निपतन्ति धार्तराष्ट्राः कालवशान्मेदिनीपृष्ठे // 511 // ' खर्धर्मात्प्रचलितानां तापसादीनामुपहासपरं वचः प्रहसनम् / यथा'श्रमणः श्रावक़वध्वाः सुरतविधौ दशति नाधरं दत्तम् / मंदिराक्षि मांसभक्षणामस्मत्समये निषिद्धमिति // 512 // संक्षिप्तिका, अवपातः, वस्तूत्थापनम्, संस्फोटः, इति चत्वारि भारभवानि // . तेषु माहेन्द्रजालनेपथ्यादिभिर्वस्तुसंक्षेपः संक्षिप्तिका / यथा'रक्षसा मृगरूपेण वञ्चयित्वा सराघवौ / जहार सीतां पक्षीन्द्रप्रयासक्षणविप्नितः // 513 // भयादिभिर्विद्रवादिकर्मानुप्रवेशनिर्गमनमवपातः / यथा'मृगरूपं परित्यज्य विधाय विकटं वपुः / .. नीयते रक्षसा तेन लक्ष्मणो युधि संशयम् // 514 // " 1. 'एव' क. 2. 'विशुद्धकीर्तिः' क.स. 3. 'तथा यस्याः' ख. तथा असाम्' क. नास्ति. 4. 'खधर्मविप्रचलिखानाम्' क., 'खधर्मविप्रचलित्ताना' ख.
Page Navigation
1 ... 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894