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भिखारी तक अभिनव रोशनी फेंक रहे हैं । और खूबीकी बात तो यह है कि इस प्रकाश - जुलुसकी पगडंडीपर हिरन, बकरे, हंस, भौरे, कुत्ते, बिल्ली, साँप, मेंढक और गर्दभ तक सन्तवाणीके माध्यम बने हुए है !
महज एक सौ अड़तीस पन्नो के लघुपटमें इतने बड़े प्रकाश - जुलूसके विशाल विस्तारको समा लेना कोई मामूली काम नहीं है ।
सन्देश ? प्रकाशका सन्देश ? उसे वाचा कैसी ? वहाँ तो झलक होती है और हृदय उसे हृदयंगम कर लेता है । सन्त- - विनोद की यह विनोदप्रसादी भी उम झलकको हृदयंगम करनेका आमन्त्रण देती है। सूत्र - शैलीवालों के लिए तो सन्तोंने सारी हकीक़तको 'श्लोकार्थ' में भी कह दिया है । सत्यका सार तो यहाँ 'आखिरी उपदेश' ( पृ० ६८ ), 'सात अवमर' ( पृ० ५७ ), ' दो दोस्त' ( पृ० ७० ), 'सुख' ( पृ० ८१ ) और 'दुनिया' ( पृ० १३६ ) पर नजर डालते ही मिल जायेगा । परन्तु ऐसे संक्षिप्त ज्ञानमे ही आनन्दकी पर्याप्ति होती तो 'एकोऽहं बहु स्याम्' की इच्छा ही क्यों जन्मती ? इस सृष्टिकी लीला ही किसलिए होती ? मौन या श्लोकार्धद्वारा प्रकटाये हुए परम तत्त्वके रहस्यको ही यहाँ आनन्दलीलाके तौरपर विभिन्न संदर्भोमे, विभिन्न रूपोंमें, उद्घाटित किया गया है । इन्द्रधनुष के समान एक रंगीन ड्रामा इस सन्त- विनोद के मंचपर निहारा जा सकता है । यहाँ अनेकानेक तत्त्व जनगण समक्ष हाजिर होते हैं, अपना अभिनय दिखाते है और आखिर अपने महास्वरूपमे विलीन हो जाते है ।
आइए, अब हम यहाँ झिलमिलाते हुए विपय- तारकोंकी प्रकाश-लिपि समझने की कोशिश करें ।
सबसे पहले इस सन्तकी सुनिए जो एक श्वानके साथ बैठकर एक ग्राम उसे खिलाता और एक स्वयं खाता जा रहा है
" तुम क्यों हँसते हो ? विष्णु विष्णुके पास बैठा है, विष्णु विष्णुको खिला रहा है । तुम क्यों हँसते हो विष्णु ? जो कुछ है विष्णु है ।" ( पृ० -