Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ प्रकाश-पुञ्ज सन्त अर्थात् मूर्तिमन्त आनन्द, विनोदमय विभूति । सन्तके शब्द जनमनके लिए संगीत और सुगन्ध होते हैं। उनकी वाणीके मर्मका अन्तिम स्वरूप और लक्षण भी अखण्ड विनोद ही है। उस विनोदमय मर्मका सम्यक् ज्ञान ही सन्त-पद-प्राप्तिका रहस्य है। यानी आनन्द ही मंज़िल है और आनन्द ही मार्ग है। यह सन्त-विनोद ऐसी ही विनोदमय सन्तवाणीकी मन्दाकिनी है जो हमारे चित्तको शुद्ध, बुद्ध, संस्कृत और प्रमुदित करती जाती है। उच्च संस्कृति दो प्रकारकी है-भद्र संस्कृति और सन्त संस्कृति । पहलीमें नीति-नियमका शासन मान्य होता है, तो दूसरीमें शुद्ध हृदयके अन्तर्नादका । एक प्रणालिकाकी प्रतिष्ठा बढ़ाकर लोगोंको नेकीकी ओर आकर्षित करती है, दूसरी स्पर्शमणिकी तरह हमारे अन्तरंगको स्वर्णिम बनाती है । भद्र-संस्कृति सौन्दर्यका परिचय कराती है; सन्त-संस्कृति सौन्दर्यरूप बनाती है। शब्दमें छन्द मिल जानेपर शब्दको काव्यत्व प्राप्त होता है, पर शब्दमें तपके मिल जानेपर शब्दमें मन्त्रत्व प्रकट होता है। यह मन्त्रत्व ही परिवर्तक स्पर्शमणि है। यहाँ ऐसे मन्त्रत्व-प्राप्त विनोदको शब्द रूपमें प्रवाहित किया गया है । सन्त-विनोद सात्त्विकतासे ओत-प्रोत है; वह मानो मुक्त-हस्त तेजकण बखेरती हुई फुलझड़ी है । प्रकाशका हास्य फैलाते हुए इन तेजकणोंमें से प्रत्येकमें समग्र पृथ्वीको हिला देनेका अमोघ सामर्थ्य है। यह वह प्रकाश है जिसके लिए मानव युगोंसे स्पष्ट-अस्पष्ट रीतिसे सिर पटकता आया है। उसकी क्वचित् झलकने भी उसे अपनी निगूढ़ गहराइयोंका दर्शन कराकर उसे 'घर आने के लिए बिह्वल बनाया है; आसमानमें भगवान्को ढूंढ़ती हुई नज़रोंको दिलकी तरफ़ झुकाया है।

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