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द्वारा पार्वती के प्रति उक्त इस तन्त्र में उल्लू के विभिन्न अंगों के साथ विभिन्न वस्तुओं के संमिश्रण द्वारा निर्मित अंजन आदि का वशीकरण, मोहन, उच्चाटन, मारण आदि तान्त्रिक क्रियाओं में उपयोग वर्णित है।
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उल्कादिस्वरूपम् इसमें उल्का और उसके स्वरूप का वर्णन करते हुये, विविध शान्तियां विविध अद्भुत सूर्यमण्डल के चारों ओर घेरा लग जाना, छायाद्भुत, सन्ध्याद्भुत, दिन में तारों का दर्शन, रूप दृष्टि अदभुत, मेषादभूत बिजलियां और दिशाओं का जलना दिखाई देना, चन्द्रोत्पात, इन्द्रधनुष, बिजली का कडकना, मूसलाधार वृष्टि होना, आकाश में उडन, तश्तरी, परियां दीख पड़ना आदि उत्पातों का निरूपण किया गया है।
ऋगर्थदीपिका ले- वेंकटमाधव ई. 12 वी शती । यह संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत ऋग्वेद का अच्छा भाष्य है। इसमें केवल मंत्रों के पदों की व्याख्या ही की गयी है। इसके अनुसार वेदों का गूढ अर्थ समझने के लिए ब्राह्मण ग्रंथों का उपयोग होता है। ऋग्वेद का अर्थ किसे कितना समझ में आता है, इस पर एक श्लोक प्रसिध्द हैं
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संहितायास्तुरीयांशं विजानन्न्यधुनातनाः । निरुक्तव्याकरणयोरासीत् येषां परिश्रमः ।।
अथ ये ब्राह्मणार्थानी विकारः कृतश्रमाः । शब्दरीतिं विजानन्ति ते सर्वे कथयन्त्यपि ।। अर्थ- केवल निरुक्त एवं व्याकरण का अध्ययन करने वाले आधुनिक लोगों को ऋक्संहिता का एक चौथाई अर्थ समझता है । परंतु जिन्होने ब्राह्मण ग्रंथों का विवेचन परिश्रमपूर्वक किया है, वे शब्दरीति जानने वाले विद्वान ही इसे पूरी तरह समझ सकते हैं
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ऋकृतंत्रम् "सामवेद" की कौथुम शाखा का प्रतिशाख्य । प्रस्तुत ग्रंथ की पुष्पिका में इसे "सक्तंव्याकरण" कहा गया है। संपूर्ण ग्रंथ 5 प्रपाठकों में विभाजित है जिनके सूत्रों की संख्या 280 है। इस ग्रंथ के प्रणेता शाकटायन हैं। यास्क व पाणिनि के ग्रंथों मे भी शाकटायन को ही इसका कर्ता माना गया है। इसमें पहले अक्षर के उदय व प्रकार का वर्णन कर व्याकरण के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिये गये हैं। अक्षरों के उच्चारण, स्थान विवरण व संधि का विस्तृत विवरण इसमें है "गोभिलसूत्र" के व्याख्याता भट्ट
यण के अनुसार, इसका संबंध राणायनीय शाखा से है। डॉ. सूर्यकांत शास्त्री द्वारा टीका के साथ यह ग्रंथ 1934 ई. में लाहौर से प्रकाशित हो चुका है।
ऋग्भाष्य:- द्वैत मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य ( ई.12-13 वीं शती) इसके प्रणेता है। आचार्य की दृष्टि ऋग्वेद की ओर द्वैत सिद्धांत के आधार के निमित्त आकृष्ट हुई। वे श्रीमद्भागवत के वाक्य - "वासुदेवपराः वेदाः वासुदेवपरा मखाः " ( 1-2-28) तथा नारायणपरा वेदाः नारायणपरा मखाः ( 2-5-15) को
42 संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
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अक्षरशः मानते हैं। अत एव उनकी दृष्टि में वेद का यही तात्पर्य होना चाहिये। वेद में तीनों प्रकार के अर्थ होते हैंअधिभौतिक आधिदैविक एवं आध्यात्मिक इन में अंतिम ही श्रुति का मुख्य तात्पर्य है इसी दृष्टि को रखकर प्रस्तुत भाष्य, (ऋग्वेद के केवल प्रथम 3 अध्यायों पर मंडलसूक्त -46 सूक्त) ही लिखा गया इसमें विष्णु की सर्वोच्चता स्वीकृत की गयी है । ( गत शताब्दी में स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी इसी आध्यात्मिक तात्पर्य को ग्रहण कर वेद के अर्थ का निरूपण किया था) उपनिषद् के भाष्य में भी यह तत्त्व प्रदर्शित किया गया है।
ऋरभाष्यभूमिका ले कपालीशास्त्री । यह ऋग्वेद के सिद्धांजन भाष्य" की प्रस्तावना है । कपाली शास्त्री का सिद्धांजनभाष्य, सन 1952 में अरविन्दाश्रम पाँडिचेरी से प्रकाशित हुआ । ऋविधानम् ऋग्वेद के मंत्रों के विनियोग की जानकारी कराने वाला ग्रंथ । ऋग्वेद में अनेक प्रकार के कर्म बताये गये हैं। यज्ञकर्म में उनका विनियोग होता है। शांत एवं घोर, पौष्टिक तथा आभिचारिक विविध प्रकार के कर्मों के लिये उपयुक्त मंत्र होते हैं। इन मंत्रों का विनियोग यज्ञकर्म में कर, फलप्राप्ति करना यह एक उपयोग एवं यज्ञ के बगैर मंत्रजप के द्वारा फल प्राप्त करना दूसरा इसी दृष्टिकोण से ऋविधान की रचना भी हुई है।
कहा जाता है कि इसके रचियता शौनक हैं किन्तु रचना को देखते हुये, किसी एक व्यक्ति की यह कृति है, यह नहीं माना गया। प्रत्येक अध्याय के अंत में "नमः शौनकाय" कहा गया है। शौनक स्वयं के लिये ऐसा प्रयोग नहीं करते। ऋग्विधान में पांच अध्याय और 750 श्लोक अनुष्टुभ् छंद में हैं। इसमें अनेक कामनाओं के मंत्र तथा उनकी अनुष्ठान विधि दी गयी है। सामान्य फलश्रुति के साथ एक सामान्य सिध्दान्त भी दिया गया है
"येन येनार्थपणा यदर्थ देवताः सुताः ।
स स कामः समृद्धिश्च तेषां तेषां तथा तथा
अर्थ- मंत्रदृष्टा ऋषि ने जो कामना रखकर देवता की स्तुति की होगी, वह कामना उस मंत्र का जप अथवा अनुष्ठान से फलप्रद होती है। मंत्र का मानस जप सब से श्रेष्ठ बताया गया है। ऋग्वेद- चार वेदों में प्रथम और विश्व में सबसे प्राचीन ग्रंथ । ऋक् याने छंदोबध्द रचना । 1) ॠच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति ऋक्, जिसके द्वारा देवताओं की स्तुति की जाती है, वह ऋक् है
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2) "पादेनार्थेन चोपेता वृत्तबद्धा मन्त्राः - चरण एवं अर्थो से युक्त वृत्तबध्द मंत्र याने ऋचा (जै. न्या. 2.1.-12)
3) तेषामृक् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था जिस वाक्य में अर्थ के आधार पर चरणव्यवस्था की जाती है, वह ऋक् है (जै. न्या. 2.-1-10)
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