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खण्ड-४, गाथा-१ प्रसक्तिः। न चाभ्युपगम्यत एवेति वाच्यम् करणविशेषस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितेः । ___ अत एव 'निराकारो बोधोऽर्थसहभाव्येकसामग्र्यधीनस्तत्रार्थे प्रमाणम्' [ ] इति वैभाषिकोक्तमसंगतम् । अपि च, कर्मण्यसौ प्रमाणमभ्युपेयते। यत उक्तम् [प्र.वा. २-३०८ ]
"सव्यापारमिवाभाति व्यापारेण स्वकर्मणि' - इति। कर्मता च बोधसहभाविनोऽर्थस्य तद्बोधापेक्षया न सम्भवति, तत्समानकालस्य तत्कृतविकार्यत्वाद्ययोगात्। अकर्मरूपे च तत्र कारणे क्रियायाः कथं 5 प्रतिनियमः ? तदभावे चैकसामग्र्यधीनतायामपि सर्वः सर्वस्य बोधो भवेत् । किञ्च, एकसामग्र्यधीनत्वस्य द्वयोरप्यविशेषात् यथा बोधोऽर्थस्य ग्राहकस्तथाऽर्थोऽपि बोधस्य किं न भवेत् ? तन्न निराकारो बोधः के जरिये प्रमाणशब्द असामान्य करण का वाचक सिद्ध होगा। यहाँ करण तो वही होगा जो विशिष्ट अर्थोपलब्धि स्वरूप कार्य को जन्म दे । यही उस करण की असामान्यता कही जायेगी। विशिष्ट अर्थोपलब्धिरूप कार्य व्यभिचारमुक्त प्रमितिस्वरूप (प्रमात्मक) होने से वह स्वयं तो अपने आप को जन्म नहीं दे सकता, 10 क्योंकि कार्य स्वयं अपना ही करण बन के अपनी जननक्रिया करे ऐसा सम्भव नहीं है क्योंकि वह युक्तिविरुद्ध है। फलतः उस का जनन करने वाला कोई दूसरा ही साधकतम करण होना जरुरी है जो कि असाधारण करण रूप माना जा सके। ऐसा करण तो प्रदीपादि भी है इसलिये जो भी प्रमितिजनकस्वभाव करण हो वही 'प्रमाण' पदवी ग्रहण करेगा चाहे वह बोधात्मक हो या अबोधात्मक (प्रदीपादि), क्योंकि विशिष्ट अर्थोपलब्धि का जनक जो कोई हो वही प्रमाण है। इस तथ्य के आलोक में आप का ‘बोधमात्र 15 ही प्रमाण है' यह लक्षण अबोधरूप प्रदीपादि में अव्याप्तिदोष- ग्रस्त जाहीर होता है।
अब बोधमात्र को नहीं, बोध विशेष यानी विशिष्ट बोध को जो लोग प्रमाण मानते हैं उन को यह प्रश्न है कि उस बोध की क्या विशिष्टता है जिससे उसे 'प्रमाण' पदवी मिले ? यदि कहें कि अव्यभिचार आदि विशेषण-विशिष्टता के जरिये बोधविशेष प्रमाण है, तो ऐसी विशिष्टता करण में नहीं किन्तु प्रमितिरूप फल में होने से प्रमितिरूप बोध में प्रमाणत्व की अतिव्याप्ति होगी। यदि 20 कहें कि यही हमें मान्य है तो यह विभ्रम है क्योंकि प्रामाणिक व्यवस्था में प्रमाण तो करणविशेषरूप होता है न कि फल (प्रमिति) स्वरूप।
वैभाषिक प्रमाणलक्षण निरसन र 'प्रमाण बोधात्मक ही हो' ऐसा नियम न होने से, वैभाषिकने जो 'निराकार बोध प्रमाण' ऐसा लक्षण कहा है वह भी असंगत ठहरेगा। वैभाषिकमतानुसार यह कहा जाता है कि अर्थ और बोध 25 दोनों एक ही सामग्री के कार्यरूप होने से, जिस अर्थ की समान सामग्री से बोध जन्म लेगा उस अर्थ में वह बोध प्रमाण होगा। एकसामग्री ही अब विषय-विषयी भाव प्रयोजक है, इसीलिये बोध को अब साकार मानने की जरुर नहीं। अतः वैभाषिक मत में बोध निराकार माना हुआ है। बोध अपनी समान सामग्री के अधीन अर्थ को विषय बनाता है इसलिये बोधक्रिया का कर्म वही अर्थ है और उसी कर्मतापन्न अर्थ के विषय में वह बोध प्रमाण माना जायेगा। प्र० वा० में कहा भी है 30 - 'अपने कर्म (कर्मभूत अर्थ) के विषय में (प्रकाशनात्मक) व्यापार से युक्त होने के कारण बोध (स्वयं अकारक होते हुए भी) सव्यापार हो ऐसा प्रतीत होता है।' .. तद्वशात् तद्व्यवस्थानादकारकमपि स्वयम् । इत्युत्तरार्द्धम् प्रमाणवार्त्तिके ।
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