Book Title: Samraicca Kaha Vol 01
Author(s): Hermann Jacobi
Publisher: Asiatic Society
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समराइचकहा।
[संक्षपे २८०
दरमाईणं पहले सहवेण चन्ति तच्छगोए ति; त्रो न निश्वेन्ति वत्यु। तहा सम्वुत्तमं माणुमत्तं दलाई भवसमुढे पसाहणं' नेम्वाणम न निउनेन्नि धमे ति: पत्रो न निहालेन्ति नियमावं । तहा भुवणडामरो मच्च अरकूरो पईए, गोधरे तस्मा एयात्रो न चिन्तयन्नि अत्तयं ति : पत्रो न पेचन्नि मपरतन्तयं । नहा ऽसुन्दरं विमयविमं परमोहां जौवाणं हेऊ गभनिरयम, निउचन्नि मं तत्थ त्ति; अश्रो न चिन्तेन्नि मझायई। ता एवं वथिए अहियपवत्तणेण भण कहं एयामि परमत्यत्रो ममोरि अणुरायो ति। एयमायलिऊण मंविग्गाओ वही, जाया .. विसुद्धभावणा, खवित्री कम्मरामो, पावियं देमचरणं । तत्रों महाएमएण मबङमाणं पणमिऊण कुमारचलणजुयलं पि. चमिमोहिं। अजउत्त, एवमेयं, न एग किंचि बारिमं । विश्भमवईए भणियं। अजउत्त, मम उण इमं मोजण अवगो विथ मोही, ममुपवमिव मांनाणं, नियत्तो " विय विमयरात्रो, मंजायमिव भवभयं ति। कामलयाए भणियं। अनउत्त, ममावि मब्वमेयं तुझं। ता एवं वन्थिए भोकय जोचियं मरिमं नियाणुरायम्म पाणवेउ अन्नउत्तो. जमदहि काययं ति। कुमारेण भणियं ।
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