Book Title: Samraicca Kaha Vol 01
Author(s): Hermann Jacobi
Publisher: Asiatic Society

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Page 895
________________ ७६२ समराहचकहा। सिंक्षेपे ४०२-. एवं चिन्तयण भोक्षिणा श्राभोरवं सम्बं। काजण देवकिश्चं पहाणकरणसंगो विवोहणनिमित्तं मित्तभारियाण मयरतमेव समागी रहा। न एवंविहाण ईवरायपरिवत्राणं विणिवायदंमणमनारेण संभवर पोहो ति पडता देवमाथा, कथा बन्धलाए विसाया। गहिया । मावेषणाए, बेडम्वियं असुजम्बावं परिक्षणं फासेपार पगिट्टदुरहिगन्धं श्रमणोरमं घरभखणरयाणं पि। मबहा तेण एवंविहेण भिन्ना उभयपासो। पहा मरामि त्ति अवलम्बए धणयत्तं। भिलए पुणे पुणे धणयत्तो वि तेण पावेण विय खियमाणे जम्बालेण। गरियो मो य वेय- १. णाषि; जाया महापरई। चिन्तियं र णेण। हो कौरमं जायं ति। विग्गो मणगं 'नोसरह बन्धुशात्रो। नौए चिनियं। हो एवम् नेहो संपयं चेव उम्बिया । भणियं र हाए। स मरामि त्ति, महई मे वेयण, भवन्ति भनाई। तेण भणियं। किमहमेत्य करेमि, " अमझ ख एयं । तौए भणियं । संवाडेहि मे । सग्गो संवाहि अवरोहमेसेण। लेसिया हत्या, न पएर वावरा विध। तो पिजियमणेष। सो किंपि एवं परपुपमगोषि मुत्तिमनं विव पावं, पगरियो पसन्दराणं। भविंच मकरणं। पिए, किमहमेत्य करेमि, न वानि मे .. 1 D वियोहो। . D भिवा उभयपासा। . D पनिष., CE परितु.। ... ।D सरिजमाउली।

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