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'आयारो'की समालोचना
दलसुख मालवणिया तेरापंथके आचार्य तुलसीजी के प्रयत्न से श्वेताम्बर आगमों की नवीन वाचना तैयार हो रही है। उसमें वाचना-प्रमुख स्वयं आचार्य तुलसीजी हैं और संपादन का भार मुनिश्री मामलजीने लिया है । इस आगमवावना में भगवान् महावीर निर्वाण के २५०० वे निर्वाण दिन विक्रम सं. २०३१ में जैन विश्वभारती, लाडनूं के द्वारा 'आयारो' नामक प्रथम अंग हिन्दी अनुवाद और विवेचन के साथ प्रकाशित हुआ है। मूल्य ३० रुपया है, और पृ. ३५९ हैं।
सबसे पहले ध्यान देनेकी बात यह है कि इसमें यह नहीं बताया गया कि इस वाचना का आधार क्या है । क्या यह माना जाय कि तेरापंथ में परंपरा से चली आई केवल श्रुत परंपरा ही इस वाचना का आधार है या प्राचीन प्रतों और मुद्रित अनेक आचारांग के संस्करण भी ? स्पष्टीकरण के अभाव में इस विषय में कल्पना ही की जा सकती है। और वह यह कि इतः पूर्व मुद्रित संस्करणों का ही विशेष रूप में इस में उपयोग हुआ है। यदि हस्तप्रतों का उपयोग होता तो आवश्य उनका निर्देश किया जाता । मुद्रित संस्करणों में भी डो. शबींग की आचारांग की आवृत्ति का ही विशेष रूप से इसमें उपयोग हुआ हो यह संभव है। किन्तु वाक्य-विन्यास में उस आवृत्ति का सर्वांशतः अनुसरण भी नहीं है | उस आवृत्तिकी यह विशेषता थी कि उसमें पद्यांशों को पृथक किया गया था । उस योजना का तो इसमें लाभ लिया गया है किन्तु संपूर्ण रूप से नहीं । शुत्रोंग ने पद्यांशों में प्रथम आदि पादों का विवेक करके तदनुसार पद्यों को छापा है, जब कि यहाँ ऐसा कोई विवेक नहीं । संभव यह भी है कि संपादक को उस तरह के पद्य अभिमत भी न हो। पाठशुद्धि के लिए भी उस आवृत्ति का उपयोग किया गया हो तब भी आश्चर्य नहीं, किन्तु प्रायः जहाँ व्यंजन-लोप शुबींग की आवृत्ति में है वहाँ इस आवृत्ति में व्यंजनों को कायम रक्खा गया हैं। इसका मूल संभवतः चूर्णिगत आचारांग के पाठों का अनुसरण हो तो आश्चर्य नहीं। दूसरी बात 'न-ण' संबंधी भी विशेषता ध्यान पात्र है। शुबींग की आवृत्ति में 'ण' के स्थान में 'न' की अधिकांश में उपलब्धि है, वहाँ सर्वत्र इस 'आयारों' में 'ण' का प्रयोग है।
डो. शुब्रींग ने केवल प्रथम श्रुतस्कंध का संपादन किया है। इसमें भी प्रथम श्रतस्कंध ही है। लेकिन डो. शुबींग ने उचित रूप से ही इसका नाम "बंभचेराई" दिया था। उसका अभाव इस संस्करण में खटकता है। यह नाम निर्मूल तो था नहीं, परंपराप्राप्त भी है। तब उसे क्यों नहीं लिया गया यह विचारणीय है ।
शुबींग की आवृत्तिमें पुनः आवृत्त पाठों को पूरा न मुद्रित कर केवल सूचना दी है, जब कि यहाँ पूरे पाठ मुद्रित हैं। डो. शुब्रोंगने पुनः आवृत्ति के लिए सामान्यतः आचारांग की प्रतों में जो पाठ मिलते हैं उनकी आवृत्ति की सूचना दी है | किन्तु इन पुनरावृत्ति के लिए 'ध्रुवगंडिका कितनी ली जाय इसकी सूचना अभयदेव की टीका में जहाँ नहीं है वहाँ चूर्णि में है। डो. शुत्रोंग ने ध्रुवगंडिका की पुनरावृत्ति में जहाँ कम पाठ लिया है, वहाँ आचारांग. चूर्णि का अनुसरण करके इसमें अधिक पाठ लिया गया है। किन्तु इसका आधार मूलसूत्रों की प्रतिओं में है या नहीं यह भी जाँचना जरूरी है। उदाहरण के तौर पर शुबींग की आवृत्ति
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