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सुषमा कुलश्रेष्ठ
शङ्ख
सङ्गीत-रत्नाकर, सङ्गीत-पारिजात तथा सजोत-सार आदि में शङ्ख का विधिवत् उल्लेख प्राप्त होता है । अहोचल तथा सङ्गीत-सारादिक के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें न केवल एक स्वर आपेतु सम्पूर्ण राग का वादन सम्भव था । वस्तुतः हाल एक सामुद्रिक जीव का ढांचा है जो समुद्र से निकाला जाता है। इनकी दो जातियाँ हैं जो दक्षिणावर्त तथा वामावर्त नाम से प्रसिद्ध हैं । युद्धावसरों तथा मङ्गलोत्सवों पर शङ्ख बजाने की प्रथा थी। आज भी पूजादि के अवसर पर शङ्ख बजाये जाते हैं। घनवाद्य या तालवाद्य
वे वाद्य जो ठोकर लगाकर बजाये जाते हैं धनवाद्य कहलाते हैं । ताल, कांस्यताल, घण्टा, क्षुद्रघण्टा (घुघरू), मँजीरा तथा जलतरङ्ग आदि की गणना घनवाद्यों में होती है। स्पष्टरूप से रु० कमें घनवाद्यों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता किन्तु प्रकारान्तर से एक दो उदारण उपलब्ध हैं । रु. क० में एक स्थल पर अनेक प्रकार के लौहयन्त्रो की ध्वनि से सभी दिशाओं के पूरित किये जाने का उल्लेख है। यह लौड्यन्त्रों की ध्वनि धनवाद्यों के अन्तर्गत ही परिगणित की जायगी। कांस्यताल का उल्लेख कवि ने लास्य (३ ।९२) तथा रुक्मिणीसौन्दय-वर्णन के प्रसङ्ग में किया है । नृत्य
सङ्गीत की तृतीय विद्या नृत्य विद्या से भी श्रीराजचूडामणि पूर्णतः परिचित थे। रूक्मिणीश्रीकृष्ण के विवाह के अवसर पर गणिकाओं के नृत्य का उल्लेख कवि ने किया है। वे गणिकाएं नाट्यविद्या-प्रवर्तक भरताचार्य द्वारा निर्दिष्ट सात्त्विक, आङ्गिक प्रभृति अभिनय-भेदों में प्रवीण थीं ।
रुक्मिणी के सौन्दर्य-वर्णन-प्रसङ्ग में कवि की उक्ति है कि रुक्मिणी के नाट्यरङ्गस्थलास्मक मुव पर नटरूप लावण्य नृत्य करने का इच्छुक था। उस समय उनके कर्णभूषण कांस्यताल नाम वाद्य के भ्रम को उत्पन्न कर रहे थे । इस प्रकार भ्रान्तिपान और अतिशयोक्ति अलङ्कारों के माध्यम से कवि ने अपने नृत्यविद्यापरक ज्ञान को प्रकट किया है। कांस्यताल तथा मुदङ्गादि के साथ सम्पन्न होते हुए नृत्य में भी विरहिणी रुक्मिणी किञ्चित् भो सुख नहीं पाती । १. रु० क० - जयशङ्खसङ्घकनकानकावलीमुरजवाद्यवाद्यनिनदे निरन्तरे ।
प्रसभं प्रतिध्वनिरिवानमण्डपे सुरदुन्दुभिध्वनिभरो व्यजम्भत ।।६।५९ २. ,
विविधौषधैरथ विचित्रदीपिकाः समदीपयन्कतिपये समन्ततः ।
अपरेऽप्यनेकविधलौहयन्त्रकरितां मुखानि रटितैरपूरयन् ॥ ६।५८ ३. " - ६२९
___ गणिकाः क्वणत्कनककङ्कणोत्करा भरतोदिताभिनयभेदकोविदाः ।
परिमञ्चमञ्चितविलास सम्पदो, ननृतुस्तरामुभयपार्श्वसीमसुः ।।६।६० ५ रु. क. - स्फुरिते कपोलभुवि कर्णभूषणे तनुतस्स्य तालयुगलभ्रमं तनोः ।
मणिदीपमोहमपि रत्नवालिके लवणिम्नि लास्यकलनोन्मुखे मुखे ॥६।२९ ६ " - प्रपञ्चितोच्चावचमूर्च्छनायो विपञ्चिकायां विमनायते सा ।।
उदञ्चदुत्ताललयेऽपि लास्ये न किञ्चिदप्यञ्चति नर्म तन्वी ॥३॥९२