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कुवलयमालाका में प्रतिपादित राजस्थान प्रेम सुमन जैन
राजस्थान के जालोर नगर में लिखित कुवलयमालाकहा यद्यपि आठवीं शताब्दी का एक कथाग्रन्थ है, किन्तु प्रसंगवश उद्योतनसूरि ने उसमें ऐसे कई तथ्य उद्घाटित किये हैं जिनसे राजस्थान एवं मालवा के जीवन पर नवीन प्रकाश पड़ता है । राजस्थान की संस्कृति पर ग्रन्थ लिखने वाले विद्वानों ने प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत में लिखे जैन साहित्य के ग्रन्थों में प्राप्त जानकारी का उपयोग करना प्रारम्भ किया है । किन्तु इस दिशा में गहराई में जाने की आवश्यकता है । तभी तथ्यों एवं उद्धरणों में प्रामाणिकता आ सकेगी । कुवलयमाला में राजस्थान के सम्बन्ध में विविध सन्दर्भ उपलब्ध हैं, जिनसे यहां के भूगोल, राजनीति, समाज, धर्म एवं कला आदि पर कई नयी बातें जानने को मिलती हैं ।
राजस्थान के कई प्राचीन नाम इतिहास में प्रसिद्ध है । उनमें से मरुदेश एवं गुर्जरदेश का उल्लेख कुवलयमाला में हुआ हैं । मरुप्रदेश से सम्बन्धित तीन उल्लेख हैं । विन्ध्यपुर से कांचीपुर जाने वाला सार्थ मरुदेश जैसा था, जिसमें ऊँटों का समूह झूमकर चल रहा था । ' मरुदेश अथवा मारवाड़ के निवासी 'मास्क' विजयपुरी की मंडी में उपस्थित थे, जो कुरूप, मंद बुद्धि वाले, आलसी, अधिक भोजन करने वाले तथा खुरदरे एवं मोटे अवयवयों वाले थे । वे अपनी वातचीत में 'अप्पा-तुप्पा' शब्दों का प्रयोग कर रहे थे । तीसरे प्रसंग में कहा गया है कि जैसे मरुस्थली में प्यास से सूखे कंठ वाले पथिक के लिए रास्ते के तालाब का ( गंदला ) पानी भी शीतल जल के समान होता है, वैसे ही संसाररूपी मरुस्थली में तृष्णा से अभिभूत जीव को संतोष शीतल जल एवं सम्यक्त्व सरोवर के समान है ।
मरुदेश के ऊँटों की बहुलता एवं पानी की कमी उद्योतन के समय में भी थी। अतः उनका यह कथन मारवाड़ के जीवन को अभिव्यक्त करता है । इस प्रदेश के लिए मरुदेश के अतिरिक्त और कोई दूसरा नाम उद्योतन ने नहीं दिया है । अतः संभव है कि आठवीं शताब्दी में रेतीले प्रदेश मरुदेश के नाम से जाना जाता रहा हो । नत्रकि आगे 'चल कर 'हम्मीरमदमर्दन' के उल्लेख के अनुसार मरुदेश के अन्तर्गत जालोर, चन्द्रावती, आबू तथा मेवाड़ के शामिल होने का भी संकेत मिलता है । उद्योतन द्वारा यहां के निवासियों को 'मारक' कहना भी इस बात का संकेत है कि मरुदेश राजस्थान के उस भाग का द्योतक था, जहां से व्यापारी वाणिज्य के लिए दक्षिण तक की यात्रा करते थे तथा अपने स्वभाव
यह विचारणीय बात है कि उद्योतन
एवं वेशभूषा के कारण अलग से पहिचाने जाते थे । ने स्वयं जालोर के निवासी होते हुए भी मरुदेश के
निवासियों को कुरूप, मन्दबुद्धि और
कुव. १३४.३३.
१. मरु - देसु जइसओ उद्दाम संचरंत करह संकुलो । २. बंके जडे य जड्डे बहु-भोई कठिण - पीण-सूणंगे । 'अप्पा-तुप्पाँ' भणिरे अह पेच्छs मारु
तत्तो ॥ - वही,
१५३.३
३. जह होइ मस्त्थली तण्हा-वस-सूसमाण कंठस्स । पहियस्स... सम्मतं होइ सर- सरिसं ॥ -
वही, १७८.१-२
राजस्थान श्रु द एजेज, पृ० ११. अर्ली चोहान डायनस्टी, पृ० १४९
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