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अध्याय - 3
कोहवजुत्तो कोहो माणवजुत्तो य माणमेवादा | माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ॥
(3-57-125)
(सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि - ) यदि तेरी ऐसी मान्यता है कि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भावों में स्वयं परिणमन नहीं करता है, तब तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है (और) क्रोधादि भावरूप से जीव के स्वयं परिणमन न करने पर संसार के अभाव का प्रसंग आ जाएगा अथवा सांख्यमत का प्रसंग आ जाएगा।
( यदि यह कहो कि ) पुद्गल कर्मरूप क्रोध जीव को क्रोधभावरूप परिणमाता है तो स्वयं परिणमन न करने वाले जीव को क्रोधरूप किस प्रकार परिणमन करा सकता है?
अथवा आत्मा स्वयं क्रोधभाव से परिणमन करता है, यदि तेरी ऐसी मान्यता है तो क्रोध जीव को क्रोधभाव रूप परिणमन कराता है यह कहना मिथ्या ठहरेगा।
(अत: सिद्ध हुआ कि) क्रोध में उपयुक्त (जिसका उपयोग क्रोधाकार परिणमित हुआ है ऐसा) आत्मा क्रोध ही है; मान में उपयुक्त आत्मा मान ही है; माया में उपयुक्त आत्मा माया है और लोभ में उपयुक्त आत्मा लोभ है।
(Addressing the disciple of the Samkhya philosophy, the Āchārya says -) If you believe that the soul by itself is not bound by karmas, and that it does not have emotional modifications like anger, then it must, by nature, remain non-manifesting. And if the soul does not have emotional modifications like anger, then empirical life (samsara) will cease to be, akin to the Samkhya faith.
If you maintain that karmic matter like anger, by its own, causes emotional modifications (like anger etc.) in the soul, then how is it possible for the karmic matter, like anger, to cause
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