Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 184
________________ अध्याय - 10 सूचनिका गाथा - एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दसणं समासेण। सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकदं तु जं होदि॥ (10-46-353) इस प्रकार तो व्यवहार नय का मत संक्षेप में कहने योग्य है। आगे निश्चयनय का वचन सुनो, जो अपने परिणामों के द्वारा किया हुआ होता है। The above perspective, from the empirical point of view (vyavahāra naya), is worth speaking; now listen to the transcendental point of view (nişchaya naya) which is the result of the modifications of the Self. जीव अपने भावकर्मों में तन्मय होने से दुखी होता है - जह सिप्पिओ दु चेंजें कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो सो। तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि हवदि य अणण्णो सो॥ __ (10-47-354) जह चेंजें कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिदो होदि। तत्तो सिया अणण्णो तह चेंढ्तो दुही जीवो॥ (10-48-355) जैसे स्वर्णकारादि शिल्पी (कुण्डलादि ऐसा बनाऊँगा, इस प्रकार मन में) चेष्टा 167

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