Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 162
________________ अध्याय - 9 जो पुरुष चोरी आदि अपराधों को करता है, वह पुरुष सशंकित रहता है कि मनुष्यों के बीच घूमते हुए 'चोर है' ऐसा जानकर किसी के द्वारा मैं बाँध न लिया जाऊँ। जो पुरुष अपराध नहीं करता, वह तो देश में नि:शंक घूमता है क्योंकि उसके मन में बँधने की चिन्ता कभी उत्पन्न नहीं होती। इसी प्रकार अपराधी आत्मा शंकित रहता है कि मैं (ज्ञानावरणादि कर्मों से) बन्ध को प्राप्त होऊँगा। यदि वह निरापराध हो तो निःशंक रहता है कि मैं नहीं बँधूंगा। A man who commits crimes, like theft, is afraid of getting caught and arrested as he moves around. But the man who does not commit crimes, roams around in the midst of people without fear of getting caught and arrested. In the same way, a guilty soul is afraid of getting bondage of karmas (like knowledge-obscuring karma). If the soul is not guilty, it remains unafraid of getting any karmic bondage. निरपराध आत्मा निःशंक होता है - - संसिद्धिराधसिद्धं साधिदमाराधिदं च एयट्ठ। अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो ॥ (9-17-304) जो पुण णिरावराधो चेदा णिस्सकिदो दु सो होदि । आराहणाइ णिच्चं वट्टदि अहमिदि वियाणंतो॥ (9-18-305) संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित ये सब एकार्थक हैं। जो आत्मा राधरहित है (निज शुद्धात्मा की आराधना से रहित है), वह आत्मा अपराध होता है; और जो 145

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