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अध्याय -3
जीवो परिणामयदे पॉग्ग्लदव्वाणि कम्मभावेण। ते सयमपरिणमंते कहं तु परिणामयदि चेदा॥
(3-50-118)
(3-50-118)
अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पोंग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदिमिच्छा॥ (3-51-119)
णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चिय होदि पोंग्गलं दव्वं। तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव॥ (3-52-120)
यह पुद्गल द्रव्य जीव में स्वयं नहीं बँधा है और कर्मभाव से स्वयं परिणमन नहीं करता है - यदि ऐसा मानो, तब तो वह अपरिणामी हो जाएगा। अथवा कार्मण वर्गणाएँ द्रव्यकर्मरूप से परिणमन नहीं करतीं - ऐसा मानो तो संसार के अभाव का प्रसंग आ जाएगा अथवा सांख्यमत का प्रसंग आ जाएगा। जीव पुद्गल द्रव्यों को कर्मभाव से परिणमन कराता है - यदि ऐसा मानो तो जीव उन्हें किस प्रकार परिणमन करा सकता है, जबकि वे पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणमन नहीं करते; अथवा यह मानो कि पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मभाव से परिणमन करता है तो जीव कर्मरूप पुद्गल को कर्मरूप परिणमन कराता है - यह कहना मिथ्या सिद्ध होता है। इसलिए जैसे नियम से कर्मरूप (कर्ता के कार्यरूप से) परिणत पुद्गल द्रव्य कर्म ही है, इसी प्रकार ज्ञानावरणादि रूप परिणमित पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि ही है। ऐसा जानो।
If you believe that physical matter does not get bound to the Self on its own accord, nor does it evolve into modes of karma on its own accord, then, it becomes immutable. Or else, if you believe that the karmic molecules (varganā) do not get transformed into various karmic modes, then this belief will lead to non-existence of the worldly state of the soul (samsāra), identical with the
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