Book Title: Samacharishatakama
Author(s): Samaysundar, 
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 369
________________ सामा० ३१ Jain Education Interna * एगेण ऊणगो दोहिं तिहिं जाव तिण्णि अवस्स वंदितबा, एवं देवसिए वि । पक्खिए पंच अवस्सं, चातुम्मांसिए संवत्सरिए य सत्त अवस्सं, ते वंदितूण जं आयरिअस्स अल्लिविज्जति तं ततिअं किइकम्मं, पच्चक्खाणे चउत्थं किइ - कम्मं । तिण्णि सज्झाए - वंदित्ता पट्टवेति पढमं, पट्ठविते पवेयंतस्स बितियं, पच्छा पढति, ततो जाहे चउन्भागावसेसा, | पोरिसी ताहे पादे पडिलेहिति, जदि न पढति तो वंदति, अह पढति तो अवदित्ता पातं पडिलेहेतूणं पच्छा पढति, कालवेलाए वंदितुं पडिक्कमति, अह उग्धाडकालिअं न पढति ताहे वंदितुं पादे पडिलेहिति एतं ततियं, एवं पुबहे सत्त अवरण्हे वि एते चैव सत्त, एताणि अन्भत्तट्ठिअस्स नियमा, भत्तट्ठिअस्स पच्चक्खाणं अन्महिअं एताणि अवस्सं चोइस, इत्यादि ३ इत्थमेव श्रीबृहत्कल्पभाष्ये तद्वृत्तौ (तृतीये उद्देशे ) च तथाहि "दुगसत्तगकिइकम्मस्स अकरणे होइ मासियं लहुगं । आवासगविवरीए, ऊणऽहिए चैव लहुओ उ[त्ति ] ॥ ४४६९ ॥ वृत्तिः - 'दुगसत्त'त्ति द्वे सप्त के चतुर्दश भवन्तीति कृत्वा पूर्वाह्नाऽपराह्नयोः चतुर्दश वन्दनकानि भवन्ति, कथमिति | चेदुच्यते - इह रात्रि - प्रतिक्रमणे चत्वारि वन्दनकानि, तत्रैकं आलोचनायां १, द्वितीयं क्षामणके २, तृतीयं षाण्मासिकतपश्चिन्तनकायोत्सर्गार्थं ३, चतुर्थ प्रत्याख्यानग्रहणार्थं इति ४ तथा स्वाध्याये त्रीणि वन्दनकानि, तत्र वृद्धसंप्रदायः, सज्झाए वंदित्ता पट्टवेइ, एयं पढमं १, पवेयं तस्स बीइयं २, पच्छा उद्दि समुद्दिट्ठे पढइ, उद्देस - समुद्देस - वंदणाण - मिहेवं तब्भावो तओ जाहे चउभागावसेसा पोरिसी ताहे पाए पडिलेहेइ जइ न पढिउकामो तो वंदइ अह पढिउकामो ताहे | अवंदित्ता पाए पडिलेहेइ, पडिले हित्ता पच्छा पढइ, कालवेलाए वंदिउँ पाए [पडिलेहण पडिक्कमइ] एवं तइयं ३ । एवं पूर्वाह्णे For Priv 261 rsonal Use Only w.jainelibrary.org

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