________________
17
अभिनयः
अभिलाषा ____ अभिनयः-नट के द्वारा अनुकार्य रामादि की अवस्था का अनुकरण। नट रङ्गमञ्च पर अनुकार्यभूत राम, युधिष्ठिर आदि की तत्तत् अवस्था को स्वयं पर आरोपित कर लेता है जिससे प्रेक्षक की 'यही राम अथवा युधिष्ठिर है' इस प्रकार की बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। नट के द्वारा किया जाने वाला यह अनुकरणात्मक व्यापार ही अभिनय कहा जाता है- भवेदभिनयोऽवस्थानुकारः। आचार्य भरत का कथन है कि यह अनुकरण वास्तव में रामादि के व्यापार का न होकर लोकव्यवहार का ही अनुवर्तन है-त्रैलोक्यस्यास्य सर्वस्य नाट्यं भावानुकीर्तनम्। यहाँ अभिनवगुप्त ने इसके अनुकरण रूप होने का विस्तार से खण्डन किया है तथा भरत के अनुकीर्तन शब्द का अर्थ न्यायदर्शन की शब्दावली में अनुव्यवसाय' किया है परन्तु स्वयं भरत उस दार्शनिक विस्तार में नहीं गये तथा अन्यत्र उन्होंने स्वयं नाट्य के सन्दर्भ में अनुकरण' शब्द का ही प्रयोग किया है-लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम्। आचार्य विश्वनाथ ने भरत की ही सरणि में अभिनय को अवस्थाविशेष का अनुकरण कहा है। अभिनय नाट्य का प्राणभूत तत्त्व है, अतएव इसकी एक संज्ञा अभिनेयार्थ भी है।
यह चार प्रकार का होता है-आङ्गिक, वाचिक, आहार्य और सात्त्विक। (6/3)
अभिप्रायः-एक नाट्यलक्षण। सादृश्य के कारण असम्भव वस्तु की कल्पना को अभिप्राय कहते हैं-अभिप्रायस्तु सादृश्यादभूतार्थस्य कल्पना। यथा-इदं किलाव्याजमनोहरं वपुस्तपःक्षमं साधयितुं य इच्छति। ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छेत्तुमृषिर्व्यवस्यति।। अ.शा. के इस पद्य में कोमल शरीर को तपस्या के लिए अयोग्य वर्णित किया गया है। (6/181)
अभिमानः--एक नाट्यालङ्कार। अहङ्कार को अभिमान कहते हैं-अभिमानः स एव स्यात्। यथा, वे. सं. में गान्धारी के पाण्डवों को राज्य देने के लिए कहने पर दुर्योधन की उक्ति-मातः किमप्यसदृशं कृपणं वचस्ते। (6/230)
अभिलाषा-पूर्वराग में काम की प्रथम दशा। प्रिय के साथ मिलन की इच्छा को अभिलाषा कहते हैं-- अभिलाषः स्पृहा। यथा-प्रेमााः प्रणयस्पृशः परिचयादुद्गाढ़रागोदयास्तास्ता मुग्धदृशो निसर्गमधुराश्चेष्टा भवेयुर्मयि।