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पताकास्थानकम्
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पताकास्थानकम्
समस्त चेष्टायें प्रधान नायक के फल को ही सिद्ध करने के लिए होती हैं, यथा सुग्रीवादि की राज्यप्राप्ति । भरतमुनि का निर्देश है कि गर्भ अथवा विमर्श सन्धि में ही उसका निर्वाह हो जाता है- आगर्भादाविमर्शाद्वा पताका विनिवर्त्तते। यहाँ आचार्य अभिनवगुप्त ने यह कहा है कि भरतप्रोक्त इस कारिका में पताका से अभिप्रय पताकानायक के फल से है क्योंकि पताका तो कभी-कभी निर्वहणसन्धि पर्यन्त भी दृष्टिगोचर होती है - तत्र पताकेति पताकानायकफलम्। निर्वहणपर्यन्तमपि पताकायाः प्रवृत्तिदर्शनात्। (6/49-50)
पताकास्थानकम्-नाटक में आगामी वस्तु की सूचना देने का साधन । जहाँ पात्र को तो अन्य अर्थ अभिलषित हो परन्तु अचिन्तितोपनत पदार्थ के द्वारा उसी के सदृश दूसरा ही अर्थ उपस्थित हो जाये - यत्रार्थे चिन्तितेऽन्यस्मिन् तल्लिङ्गोऽन्यः प्रयुज्यते । आगन्तुकेन भावेन पताकास्थानकन्तु तत् ।। इससे कथावस्तु में वैचित्र्य का समावेश होता है। इसके चार भेद होते हैं - ( 1 ) जहाँ उपचार के द्वारा सहसा अधिक गुणयुक्त अभीष्टसिद्धि उत्पन्न हो जाये, वह प्रथम पताकास्थानक है - सहसैवार्थसम्पत्तिर्गुणवत्युपचारतः । पताकास्थानकमिदं प्रथमं परिकीर्तितम् । यथा र.ना. में राजा छद्मवेषधारिणी सागरिका को वासवदत्ता समझकर उसे कण्ठपाश से छुड़ाता है, तभी उसकी कण्ठध्वनि से यह जानकर उसे और भी आनन्द होता है कि वह उसकी प्रियतमा सागरिका है-'" कथं मे प्रिया सागरिका " । (2) जहाँ श्लिष्ट वचनों के द्वारा प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों ही अर्थों की प्रतीति हो वहाँ द्वितीय पताकास्थानक होता है - वचः सातिशयश्लिष्टं नानाबन्धसमाश्रयम् । पताकास्थानकमिदं द्वितीयं परिकीर्तितम् । यथा वे.सं. में रक्तप्रसाधित- भुवः क्षतविग्रहाश्च, स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुताः सभृत्याः । इसका सूत्रधार का अभीष्ट अर्थ तो यही है कि 'जिन्होंने पृथ्वी को जीत लिया है और जिनका झगड़ा नष्ट हो गया है ऐसे कौरव अपने भृत्यों के साथ स्वस्थ हो जायें परन्तु श्लेष से यहाँ एक अन्य अर्थ - जिनके रक्त से पृथ्वी रञ्जित हो गयी है और जिनके शरीर नष्ट हो गये हैं, ऐसे कौरव स्वर्गस्थ हो जायें, भी प्रतीत होता है। इस प्रकार इससे नाटक के बीजभूत अर्थ तथा नायक के मङ्गल की भी प्रतीति होती है।
। (3) श्लिष्ट प्रत्युत्तर से युक्त तथा अव्यक्त अर्थ को विनयपूर्वक सूचित करने वाला तृतीय पताकास्थानक होता है- अर्थोपक्षेपकं यत्तु लीनं सविनयं