Book Title: Sahitya Darpan kosha
Author(s): Ramankumar Sharma
Publisher: Vidyanidhi Prakashan

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Page 209
________________ सट्टकम् 203 सन्दिग्धम् की उपस्थिति विना शक्तिग्रह के मानी जाये तो पदार्थोपस्थिति में शक्तिग्रह की कारणता नहीं बन सकेगी, अत: व्यभिचार दोष होगा। गो आदि व्यक्तियों में रहने वाला उसका गोत्वादि धर्म जाति कहलाता है। पदार्थ में वैशिष्ट्य का आधान करने वाला सिद्ध वस्तुधर्म गुण कहा जाता है जो सजातीय व्यक्तियों को अलग करते हैं। हरि, हर, डिस्थ, डवित्थ आदि एक व्यक्तिवाचक पद द्रव्य कहे जाते हैं। पाकादि साध्य वस्तुधर्म को क्रिया कहते हैं। इन्हीं चार उपाधियों में शब्दों का सङ्केत गृहीत होता है। (2/8) सट्टकम्-उपरूपक का एक भेद। यह सम्पूर्ण रूप से प्राकृत भाषा में निबद्ध रचना है। यहाँ विष्कम्भक और प्रवेशक का प्रयोग नहीं होता तथा अद्भुत रस प्रचुर रूप से विद्यमान रहता है। अङ्कों का विभाजन इसमें 'जवनिका' के नाम से होता है। शेष सभी बातें नाटिका के समान हैं-सट्टकं प्राकृताशेषपाठ्यं, स्यादप्रवेशकम्। न च विष्कम्भकोऽप्यत्र प्रचुरश्चाद्भुतो रसः। अङ्काः जवनिकाख्याः स्युः। स्यादन्यन्नाटिकासमम्। इसका उदाहरण कर्पूरमञ्जरी है। (6/284) __सत्त्वम्-अन्त:करण की एक स्थिति। अन्तःकरण की वह स्थिति जहाँ रजोगुण और तमोगुण नहीं रहते, सत्त्व कही जाती है-रजस्तमोभ्यामस्पृष्टं मनः सत्त्वमिहोच्यते। यह अन्त:करण का धर्म है जिसमें रस प्रकाशित होता है- सत्त्वं नाम स्वात्मविश्रामप्रकाशकारी कश्चनान्तरो धर्मः। सन्दानितकम्-तीन पद्यों का समूह। तीन पद्यों में वाक्यार्थ की परिसमाप्ति होने पर सन्दानितक कहा जाता है-सन्दानितकं त्रिभिरिष्यते। (6/302) सन्दिग्धत्वम्-एक काव्यदोष। जहाँ अभिप्राय का निश्चय न हो सके वहाँ सन्दिग्धत्व दोष होता है। यथा-अचला अबला वा स्युः सेव्या ब्रूत मनीषिणः। यहाँ प्रकरण के अभाव में यह ज्ञात नहीं हो पाता कि वक्ता शान्त है अथवा शृङ्गारी, इलिए अभिप्राय सन्दिग्ध रह जाता है। यह अर्थदोष है। (7/5) सन्दिग्धम्-एक काव्यदोष। जहाँ पद के अर्थ के विषय में सन्देह उत्पन्न हो जाये वहाँ सन्दिग्ध दोष होता है। यथा-आशी:परम्परां वन्द्यां कर्णे

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