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समर्पणम्
समाधानम् समर्पणम्-भाणिका का एक अङ्ग। कोप या पीडा के कारण उपालम्भयुक्त वचन कहना समर्पण कहलाता है-सोपालम्भवचः कोपपीडयेह समर्पणम्। (6/300)
समवकार:-रूपक का एक भेद। 'समवकीर्यन्ते बहवोऽर्थाः अस्मिन्निति' इस व्युत्पत्ति से जिसमें बहुत प्रकार के अर्थ निबद्ध हों उसे समवकार कहते हैं। यहाँ देवों तथा दैत्यों से सम्बन्धित कथानक तीन अङ्कों में वर्णित होता है। विमर्श के अतिरिक्त चार सन्धियाँ, दो प्रथम अङ्क में तथा एक एक दूसरे और तीसरे अङ्क में निबद्ध होती है। कैशिकी के अतिरिक्त सभी वृत्तियों का प्रयोग होता है। बिन्दु और प्रवेशक नहीं होते। यथासम्भव तेरह वीथ्यङ्ग तथा गायत्री, उष्णिक् आदि विविध छन्दों की योजना की जाती है। प्रथमाङ्क की कथा बारह नाली, द्वितीयाङ्क की तीन तथा तृतीयाङ्क की दो नाली मात्र समय में समाप्त होनी चाहिए (एक नाली दो घड़ी की कही जाती है)। सम्पूर्ण कथानक में तीन प्रकार का शृङ्गार (धर्मशृङ्गार, अर्थशृङ्गार और कामशृङ्गार), तीन प्रकार का कपट (स्वाभाविक, कृत्रिम और दैवज) तथा तीन प्रकार का विद्रव (चेतन, अचेतन तथा चेतनाचेतन [गजादिकृत] वर्णित होता है। बारह प्रख्यात तथा उदात्त देवता और मनुष्य नायक यहाँ निबद्ध होते हैं। उन सब नायकों का फल पृथक्-पृथक् होता है। वीर रस अङ्गी तथा अन्य रस अङ्ग रूप में आते हैं-वृत्तं समवकारे तु ख्यातं देवासुराश्रयम्। सन्धयो निर्विमर्शास्तु त्रयोऽङ्गास्तत्र चादिमे। सन्धी द्वावन्त्ययोस्तद्वदेक एव भवेत्पुनः। नायका द्वादशोदात्ताः प्रख्याता देवदानवाः। फलं पृथक्-पृथक् तेषां वीरमुख्योऽखिलो रसः। वृत्तयो मन्दकौशिक्यो नात्र बिन्दुप्रवेशको। वीथ्यङ्गानि च तत्र स्युर्यथालाभं त्रयोदश। गायत्र्युष्णिमुखान्यत्र छन्दांसि विविधानि च। त्रिशृङ्गारस्त्रिकपटः कार्यश्चायं त्रिविद्रवः। वस्तु द्वादशनाडीभिर्निष्पाद्यं प्रथमाङ्कगम्। द्वितीयेऽङ्के च तिसृभिभ्यिामङ्के तृतीयके।। इसका उदाहरण समुद्रमन्थनम् है। (6/257-58)
समाधानम्-मुखसन्धि का एक अङ्ग। बीज के आगमन को समाधान कहते हैं-बीजस्यागमनं यत्तु तत्समाधानमुच्यते। यथा वे.सं. में 'स्वस्था भवन्ति मयि जीवति० आदि भीमसेन की उक्ति में जिस बीज की स्थापना की गयी थी, नेपथ्य के भो भो विराटद्रुपद०' आदि कथन से वह प्रधान नायक युधिष्ठिर को भी अभिमत हो गया है। इस प्रकार यहाँ बीज का