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भावशान्तिः
भावः
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अतः
रसप्रक्रिया में उपकारी होने के कारण ही आता है। आलम्बन और उद्दीपन विभावों के द्वारा सामाजिकगत रत्यादि भाव विभावित किये जाते हैं, ये इसके कारणरूप हैं। इस प्रकार भाव एक रससापेक्ष सत्ता है जो सहृदय के हृदय में रसों की भावना कराये। (3/187)
भावः- नायिका का सात्त्विक अलङ्कार । यह अङ्गज विकार है। जन्म से ही निर्विकार चित्त में उद्बुद्धमात्र प्रथम विकार भाव कहलाता है - निर्विकारात्मके चित्ते भावः प्रथमविक्रिया । यथा - स एव सुरभि कालः, स एव मलयानिलः । सैवेयमबला किन्तु मनोऽन्यदिव दृश्यते । । ( 3 / 104)
भावशबलता - अनेक भावों की एक साथ स्थिति । अनेक भावों की एक साथ स्थिति भावशबलता कही जाती है। यथा - क्वाकार्यं शशलक्ष्मणः क्व च कुलं, भूयोऽपि दृश्येत सा, दोषाणां प्रशमस्य नः श्रुतमहो कोपेऽपि कान्तं मुखम्। किं वक्ष्यन्त्यपकल्मषाः कृतधियः, स्वप्नेऽपि सा दुर्लभा, चेतः स्वास्थ्यमुपेहि कः खलु युवा धन्योऽधरः पास्यति । । इस पद्य में वितर्क, औत्सुक्य, (प्रथम चरण) मति, स्मृति, (द्वितीय चरण) शङ्का, दैन्य, (तृतीय चरण) धृति, चिन्ता (चतुर्थ चरण) भावों की शबलता है। (3/244)
भावशबलता-एक अर्थालङ्कार । जहाँ अनेक भावों का मिश्रण किसी अन्य का अङ्ग बनकर आये वहाँ भावशबलता नामक अलङ्कार होता है। यथा - पश्येत्कश्चिच्चलचपल रे का त्वराऽहं कुमारी, हस्तालम्बं वितर हहहा व्युत्क्रमः क्वासि यासि । इत्थं पृथ्वीपरिवृढ़ भवद्विद्विषोऽरण्यवृत्तेः कन्या कञ्चित्फलकिसलयान्यादधानाभिधत्ते । । इस पद्य में 'पश्येत्कश्चित् ' में शङ्का, 'चपल रे' में असूया, 'का त्वरा' में धृति, 'अहं कुमारी' में स्मृति, 'हस्तालम्बं वितर' में श्रम, 'हहहा' में दैन्य, 'व्युत्क्रमः' में विबोध, 'क्वासि यासि' में औत्सुक्य नामक भावों का मिश्रण है जो राजविषयक रतिभाव का अङ्ग बनकर उपस्थित हुआ है। I (10/125)
भावशान्ति :- पूर्व भाव की समाप्ति । किसी विरोधी भाव के सहसा उपस्थित हो जाने पर पूर्वभाव की समाप्ति को भावशान्ति कहते हैं। यथा - सुतनु जहिहि कोपं पश्य पादानतं मां, न खलु तव कदाचित् कोप एवं विधोऽभूत् । इति निगदति नाथे तिर्यगामीलिताक्ष्या, नयनजलमनल्पं मुक्तमुक्तं