Book Title: Sahitya Darpan kosha
Author(s): Ramankumar Sharma
Publisher: Vidyanidhi Prakashan

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Page 182
________________ विलासः 176 विलोभनम् गतिर्धरित्रीम्। कौमारकेऽपि गिरिवद् गुरुतां दधानो, वीरो रसः किमयमेत्युत दर्प एषः ।। कुश के विलास को देखकर यह राम की उक्ति है। (3/63) विलासः - प्रतिमुखसन्धि का एक अङ्ग । रति नामक भाव के विषय अर्थात् स्त्री अथवा पुरुष के लिए अभिलाषा को विलास कहते हैं- समीहा रतिभोगार्था विलास इति कथ्यते । यथा, अ.शा. में दुष्यन्त का यह कथन - कामं प्रिया न सुलभा मनस्तु तद्भावदर्शनाश्वासि । अकृतार्थेऽपि मनसिजे रतिमुभयप्रार्थना कुरुते । । इस पद्य में दुष्यन्त की शकुन्तलाविषयक अभिलाषा प्रकट हुई है। (6/82) विलासः - नायिका का सात्त्विक अलङ्कार । प्रिय के दर्शनादि से गति, स्थिति, आसनादि तथा मुख, नेत्रादि की विलक्षणता को विलास कहते हैं- यानस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम्। विशेषस्तु विलासः स्यादिष्टसन्दर्शनादिना । यथा - अत्रान्तरे किमपि वाग्विभवातिवृत्तवैचित्र्यमुल्लसित विभ्रममायताक्ष्याः । । तद्भूरिसात्त्विकविकारमपास्तधैर्यमाचार्यकं विजयि मान्मथमाविरासीत् ।। ( 3 / 115 ) विलास :- शिल्पक का एक अङ्ग । (6/295) विलासिका - उपरूपक का एक भेद। यह संक्षिप्त कथानक वाली, शृङ्गारबहुला तथा एकाङ्की रचना है। इसमें गर्भ और विमर्श सन्धियाँ नहीं होतीं। सुन्दर वेषादि का विन्यास होता है। यह दसों लास्याङ्गों से युक्त होती है। इसके पात्रों में हीन कोटि का नायक, पीठमर्द तथा विदूषक और विट भी होते हैं-शृङ्गारबहुलैकाङ्का दशलास्याङ्गसंयुता । विदूषकविटाभ्याञ्च पीठमर्देन भूषिता । हीना गर्भविमर्शाभ्यां सन्धिभ्यां हीननायका । स्वल्पवृत्ता सुनेपथ्या विख्याता सा विलासिका ।। कुछ आचार्य इसे ही लासिका कहते हैं जबकि अन्य आचार्यों का मत है कि वह उपरूपक का अन्य ही भेद है जिसका दुर्मल्लिका में अन्तर्भाव होता है। (6/296) विलोभनम् - मुखसन्धि का एक अङ्ग । गुणकथन का नाम विलोभन है - गुणाख्यानं विलोभनम् । यथा वे.सं. में द्रौपदी का यह कथन - नाथ! किं दुष्करं त्वया परिकुपितेन । अ.शा. आदि नाटकों में ग्रीवाभङ्गाभिरामम्० आदि के रूप में मृगादि का जो गुणकथन किया गया है, वह सन्ध्यङ्ग नहीं है क्योंकि उसका बीजार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है । ( 6/72)

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