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प्रणयजन्यमानः
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प्रतिमुखम् प्रणयजन्यमानः-मानविप्रलम्भ का एक प्रकार। प्रेम की गति ऐसी विचित्र है कि इसमें नायकनायिका में अत्यन्त प्रेम होने पर भी विना कारण के ही कोई एक अथवा दोनों कुपित हो जाते हैं। इसे ही प्रणयमान कहते हैं-द्वयोः प्रणयमानः स्यात्प्रमोदे सुमहत्यपि। प्रेम्णः कुटिलगामित्वात्कोपो यः कारणं विना।। यथा-एकस्मिन् शयने पराङ्मुखतया वीतोत्तरं ताम्यतोरन्योन्यस्य हदि स्थितेऽप्यनुनये संरक्षतोर्गौरवम्। दम्पत्योः शनकैरपाङ्गवलनान्मिश्रीभवच्चक्षुषोर्भग्नो मानकलिः सहासरभसव्यासक्तकण्ठग्रहः।। इस पद्य में नायक और नायिका दोनों का प्रणयमान वर्णित है। (3/205)
प्रतिकूलवर्णत्वम्-एक काव्यदोष। वर्णों की रचना रस के प्रतिकूल होने पर प्रतिकूलवर्णत्व दोष होता है। कोमल रसों में यथासम्भव कोमल वर्णों का तथा प्रदीप्त रसों में कठोर वर्गों का प्रयोग होना चाहिए। इसके विपरीत वर्णों का प्रयोग दोषावह है। यथा-अववर्तयति उल्लोठयति शयने कीपि मोट्टयति नो परिघटते। हृदयेन स्फिट्टयति लज्जया खुट्टयति धृतेः सा।। विप्रलम्भ शृङ्गार जैसे अत्यन्त कोमल रस में ऐसे वर्णों का प्रयोग दोषावह है। वैसे कोमल रसों में भी यदि दो-तीन-चार प्रतिकूल वर्ण आ जायें तो उतना रसभङ्ग नहीं होता परन्तु बहुत अधिक प्रतिकूल वर्ण रसानुभूति को दूषित ही करते हैं। यह वाक्यदोष है। (7/4)
प्रतिनायकः-वीर और रौद्ररसों का आलम्बन। प्रतिनायक नायक का प्रतिपक्षी, धीरोद्धत प्रकृति का, पाप कर्मों में रत तथा व्यसनी होता है-धीरोद्धतः पापकारी व्यसनी प्रतिनायकः। यथा, राम का प्रतिपक्षी रावण प्रतिनायक है। (3/138)
प्रतिपत्तिः-शिल्पक का एक अङ्ग। (6/295)
प्रतिमुखम्-सन्धि का द्वितीय भेद। इसमें मुखसन्धि में निर्दिष्ट प्रधान फल कुछ लक्षित तथा कुछ अलक्षित होता हुआ विकास को प्राप्त करता है। इस प्रकार यहाँ 'यत्न' नामक कार्यावस्था तथा बिन्दु नामक अर्थप्रकृति का मेल होकर कथानक अग्रेसर होता है-फलप्रधानोपायस्य मुखसन्धिनिवेशिनः। लक्ष्यालक्ष्य इवोद्भेदो यत्र प्रतिमुखञ्च तत्।। यथा, र.ना. के द्वितीयाङ्क में सुसङ्गता और विदूषक को वत्सराज और सागरिका के परस्पर अनुराग का