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उपमानम्
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उपादानलक्षणा
पद्य में उपमेय अधर और उपमान सुधा में मधुर नामक सामान्यधर्म एकरूप ही है तथा कहीं यह उपाधिभेद से भिन्न भी हो जाता है। यह भेद उसी प्रकार का है जैसे दुग्ध, शङ्ख और हिम की शुक्लता में परस्पर भेद है । कहीं तो यह भेद शब्दमात्र का ही होता है (यथा- स्मेरं विधाय नयनं विकसितमिव नीलमुत्पलं मयि सा । कथयामास कृशाङ्गी मनोगतं निखिलमाकूतम् ।। इस पद्य . में स्मेरत्व और विकसितत्व रूप सामान्यधर्म वस्तुतः एक ही है) और कहीं उनमें परस्पर बिम्बप्रतिबिम्बभाव रहता है (यथा-मल्लापवर्जितैस्तेषां शिरोभिः श्मश्रुलैर्महीम्। तस्तार सरघाव्याप्तैः स क्षौद्रपटलैरिव ।। इस पद्य में उपमेय सिर का धर्म श्मश्रुलत्व और उपमान क्षौद्रपटल का धर्म सरघाव्याप्तत्व है तथापि श्यामत्वसामान्य से इन दोनों में परस्पर बिम्बप्रतिबिम्बभाव प्रतीत होता है ) । (10/18-34)
उपमानम्-उपमा का एक अङ्ग । जिसके साथ उपमेय की तुलना की जाये। इस प्रकार इसका उत्कृष्ट गुणों से युक्त होना लोकसिद्ध होता है। इसे ही अन्य, अप्रस्तुत, अप्रकृत आदि भी कहा जाता है। 'मुखं चन्द्र इव मनोहरम् ' आदि उपमावाक्यों में चन्द्र उपमान है - उपमानं चन्द्रादि । ( 10/19 की वृत्ति)
उपमेयम् - उपमा का एक अङ्ग । उपमान के साथ जिसकी तुलना की जाए। इसे प्रकृत, प्रस्तुत, वर्णनीय, विषय आदि नामों से भी कहा गया है। 'मुखं चन्द्र इव मनोहरम्' आदि उपमावाक्यों में मुख उपमेय है- उपमेयं मुखादि। ( 10/19 की वृत्ति)
उपमेयोपमा - एक अर्थालङ्कार । जो एक वाक्य में उपमान हो वह अगले वाक्य में उपमेय तथा जो प्रथम वाक्य में उपमेय हो, वह द्वितीय वाक्य में उपमान हो जाये तो उपमेयोपमा अलङ्कार होता है - पर्यायेण द्वयोरेतदुपमेयोपमा मता । स्वाभाविक रूप से इसमें दो वाक्यों की अपेक्षा होती है। इसका उदाहरण यह पद्य है- कमलेव मतिर्मतिरिव कमला तनुरिव विभा विभेव तनुः । धरणीव धृतिर्धृतिरिव धरणी सततं विभाति बत यस्य ।। (10/39)
उपादानलक्षणा-लक्षणा का एक भेद | रूढ़ि और प्रयोजनवती लक्षणा के उपादान तथा लक्षणलक्षणा के रूप में दो-दो भेद होते हैं । उपादान का अर्थ है - ग्रहण करना । वाक्यार्थ में अन्वय की सिद्धि के लिए जहाँ अन्य