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उदाहरणम्
उद्दीपनविभावः प्रकार हैं-(1)अधः कृताम्भोधरमण्डलानां यस्यां शशाङ्कोपलकुट्टिमानाम्। ज्योत्स्नानिपातात्क्षरतां पयोभिः केलीवनं वृद्धिमुरीकरोति।। तथा (2) नाभिप्ररूढाम्बुरुहासनेन, संस्तूयमानः प्रथमेन धात्रा। अमुं युगान्तोचितयोगनिद्रः संहत्य लोकान्पुरुषोऽधिशेते।। प्रथम श्लोक में लोकोत्तर सम्पदा का वर्णन है तथा दूसरे पद्य में समुद्रवर्णन के अङ्ग के रूप में विष्णु का चरित्र वर्णित हुआ है। (10/123)
उदाहरणम्-गर्भसन्धि का एक अङ्ग। उत्कर्षयुक्त वचन को उदाहरण कहते हैं-उदाहरणमुत्कर्षयुक्तं वचनमुच्यते। वे. सं. में अश्वत्थामा की उक्ति -यो यः शस्त्रं बिभर्ति स्वभुजगुरुमदः पाण्डवीनां चमूना, यो यः पाञ्चालगोत्रे शिशुरधिकवया गर्भशय्यां गतो वा। यो यस्तत्कर्मसाक्षी चरति मयि रणे यश्च यश्च प्रतीपः, क्रोधान्धस्तस्य तस्य स्वयमिह जगतामन्तकस्यान्तकोऽहम्।। इसका उदाहरण है। (6/99)
उदाहरणम्-एक नाट्यलक्षण। जहाँ अभिमत अर्थ समान अर्थ वाले वाक्य के प्रदर्शन से साधित किया जाता है, उसे उदाहरण कहते हैं-यत्र तुल्यार्थयुक्तेन वाक्येनातिप्रदर्शनात्। साध्यतेऽभिमतश्चार्थस्तदुदाहरणं मतम्।। यथा-अनुयान्त्या जनातीतं कान्तं साधु त्वया कृतम्। इस अभिमत अर्थ को समान अर्थ वाले वाक्यों का दिन श्रीविनार्केण' तथा 'का निशा शशिना विना' इन वाक्यों के प्रदर्शन से साधित किया गया है। (6/174)
उद्घात्यक:-वीथ्यङ्ग। प्रस्तावना का भेद। जहाँ अप्रतीतार्थक पदों को उनके अर्थबोध के लिए अन्य पदों के साथ जोड़ देते हैं, उसे उद्घात्यक कहते हैं-पदानि त्वगतार्थानि तदर्थगतये नराः। योजयन्ति पदैरन्यैः स उद्घात्यक उच्यते।। यथा, मु. रा. में सूत्रधार के द्वारा प्रयुक्त 'क्रूरग्रहः स केतुश्चन्द्रमसम्पूर्णमण्डलमिदानीम्। अभिभवितुमिच्छति बलात् . . . . .।। इस वाक्य को सुनकर चाणक्य अपने हृदयस्थ अर्थ के साथ सङ्गति बिठाता हुआ क्रूरग्रह को राक्षस, केतु को मलयकेतु, चन्द्र को चन्द्रगुप्त, असम्पूर्णमण्डलम् को जिसका राज्य अभी पूर्णरूप से स्थिर नहीं हुआ, इन अर्थों में सङ्क्रान्त करके रङ्गमञ्च पर प्रवेश करता है। (6/18)
उद्दीपनविभावः-विभाव का एक भेद। जो रस को उद्दीप्त करते हैं