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आर्थीव्यञ्जना
आर्थीव्यञ्जना की होती है। यथा-मधुरःसुधावदधरः पल्लवतुल्योऽतिपेलवः पाणिः। चकितमृगलोचनाभ्यां सदृशी चपले च लोचने तस्याः।। सुधावत् में तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः' से तुल्यार्थक तद्धित वति प्रत्यय है। पल्लवतुल्यः' में षष्ठी' सूत्र से समास है तथा श्लोक के उत्तरार्ध में वाक्यगत आर्थी पूर्णोपमा है। (10/20) ___आर्थीव्यञ्जना-व्यञ्जना का एक भेद। शब्द से इतर अर्थात् वक्ता, बोद्धा, वाक्य, अन्य का संनिधान, अर्थ, प्रकरण, देश, काल, काकु तथा चेष्टा आदि के कारण जो शक्ति अर्थ का बोध कराती है, वह अर्थसम्भवा व्यञ्जना है-वक्तृबोद्धव्यवाक्यानामन्यसन्निधिवाच्ययोः। प्रस्तावदेशकालानां काकोश्चेष्टादिकस्य च। वैशिष्ट्यादन्यमर्थं या बोधयेत्सार्थसम्भवा। यथा-कालो मधुः कुपित एष च पुष्पधन्वा, धीरा वहन्ति रतिखेदहराः समीराः। केलीवनीयमपि वञ्जुलकुञ्जमञ्जुर्दूरे पतिः कथय किं करणीयमद्य।। इस पद्य से प्रच्छन्न कामुक के साथ रमणरूप व्यङ्ग्यार्थ की प्रतीति होती है। यह व्यञ्जना वक्ता, वाक्य, प्रकरण, देश तथा काल के वैशिष्ट्य से होती है। निश्शेषच्युतचन्दनादि प्रसिद्ध पद्य से तुम उसी के साथ रमण करने गयीं थीं, इस व्यङ्ग्यार्थ का बोध बोद्धव्य दूती के वैशिष्ट्य से होता है। पश्य निश्चलनिष्पन्दा बिसिनीपत्रे राजते बलाका। निर्मलमरकतभाजनप्रतिष्ठिता शङ्खशुक्तिरिव।। इस पद्य में निश्चल और निस्पन्द बलाका की सन्निधि से क्रमशः उसकी विश्वस्तता, स्थान की निर्जनता, अतएव उसकी सङ्केतस्थानयोग्यता व्यक्त होती है। काकु के द्वारा व्यञ्जना का उदाहरण-गुरुपरतन्त्रतया बत दूरतरं देशमुद्यतो गन्तुम्। अलिकुलकोकिलललिते नैष्यति सखि! सुरभिसमयेऽसौ।। है। इसमें 'नैष्यति' पद को भिन्न कण्ठध्वनि से पढ़ने पर 'एष्यत्येव' ऐसा व्यङ्ग्यार्थ प्रतीत होने लगता है। सङ्केतकालमनसं विटं ज्ञात्वा विदग्धया। हसन्नेत्रार्पिताकूतं लीलापमं निमीलितम्।। इस पद्य में नायिका पद्मनिमीलन की चेष्टा से सन्ध्या की सङ्केतकालता द्योतित करती है। ___अर्थ क्योंकि वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग्यरूप से तीन प्रकार का होता है, अतः सभी प्रकार की आर्थी व्यञ्जनायें भी तीन-2 प्रकार की होती हैं।