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अविशेषेविशेषत्वम्
अश्लीलत्वम् अर्थ में अवाचक है। इसी प्रकार ‘दिनं मे त्वयि सम्प्राप्ते ध्वान्तच्छन्नापि यामिनी' इस उदाहरण में दिन शब्द 'प्रकाशमय' अर्थ को प्रकट कर रहा है परन्तु यह इस अर्थ का वाचक नहीं है। दिन शब्द का अर्थ होता है-सूर्य से युक्त काल। किसी भी प्रकार के प्रकाश की अवस्था में 'दिन' शब्द का प्रयोग नहीं होता। 'वर्ण्यते किं महासेनो विजेयो यस्य तारकः', यहाँ 'विजेय' में यत् प्रत्यय क्त के अर्थ में है। अतः यह पदांशगत अवाचक का उदाहरण है। (7/3) __ अविशेषेविशेषत्वम्-एक काव्यदोष। अविशेष बहुव्यापक होता है, विशेष अल्पव्यापक। अत: बहुव्यापक विषय में अल्पव्यापक शब्द का प्रयोग करना दोष ही है। यथा-हीरकाणां निधेरस्य सिन्धोः किं वर्णयामहे। वस्तुतः समद्र को रत्ननिधि कहना चाहिए। हीरकों में अल्पव्यापकत्व है, अत: यह अविशेष के स्थान पर विशेष का प्रयोग हुआ। (7/5)।
__ अश्रुः-एक सात्त्विक अनुभाव। क्रोध, दुःख तथा अत्यन्त हर्ष से नेत्रों में जल का आ जाना अश्रु कहा जाता है-अश्रु नेत्रोद्भवं वारि क्रोधदुःखप्रहर्षजम्। (3/146) ____ अश्लीलत्वम्-एक काव्यदोष। व्रीडा, घृणा अथवा अमङ्गल रूप असभ्य अर्थ का व्यञ्जक अश्लील कहा जाता है-अश्लीलत्वं व्रीडाजुगुप्सामङ्गलव्यञ्जकत्वात्। यथा-दृप्तारिविजये राजन् साधनं सुमहत्तव, में 'साधन' पद लिङ्ग अर्थ का भी वाचक होने से व्रीडादायक है। प्रससार शनैर्वायुर्विनाशे तन्वि ते तदा, में 'वायु' पद अपानवायु का भी वाचक होने से जुगुप्सादायक तथा विनाश' शब्द अमङ्गलसूचक है। पाणिः पल्लवपेलवः, इस पंक्ति में 'पेलव' शब्द के प्रथम दो अक्षरों से लज्जाजनक अश्लीलता की प्रतीति होती है, अतः यह पदांशगत दोष भी है। दो पदों की सन्धि के कारण यदि किसी अश्लील अर्थ की कल्पना होती हो तो वह वाक्यगत अश्लील दोष होता है। यथा-चलण्डामरचेष्टितः। यहाँ चलन् और डामर पदों में सन्धि के कारण घृणावाचक अश्लीलत्व की प्रतीति होती है। अश्लील दोष अर्थविषयक भी होता है। यथा-हन्तमेव प्रवत्तस्य स्तब्धस्य विवरैषिणः। यथाशु जायते पातो न तथा पुनरुन्नतिः।। यहाँ शिश्नरूप व्रीडाव्यञ्जक अश्लील अर्थ की प्रतीति होती है। कामगोष्ठी आदि में अश्लीलत्व दोष नहीं होता। (7/3-6)