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चउत्थो सग्गो
परिणि रोहिणि 'अमर विरोहिणी तहि संवच्छ एक्कु थिउ । उप्पण्णउ ह्लयरु पुत्तु प्रणोहरू बहवें पाई जसपुंजु किउ ॥
संकरण रामनाम णिम्मिज ।
एउ "सुहाउहु अवरु फिउ ॥ बहु सतसई पकारियई ।
रिपुरवरे पसारियई । वसुए जराडि ' संचर | घणुवेय-गुरु-जबएस करइ ।। अच्छ सय सोसलं करि । सुपसिद्ध हुउ परमा इरिख ॥ विजत्थिताम कंस अइउ । घरघल्लिउ 'ओहाभिय लइउ ॥ वणुकद्दमवेह निवारणं । सिक्ख प्रणेय पहरणई ॥ तह कालि कहि केणवि परेण । पुष्प धोषण किय चक्केसरेण ||
जो कोयि निबंध सौहरहु । जीवंजस विज्जइ तासु बहू ॥
देवों की विरोधिनी रोहिणी से विवाह कर वसुदेव वहाँ एक वर्ष रहे। उनके हलधर नामक सुन्दर पुत्र हुआ, मानो विधाता ने यशपुंज ही उत्पन्न किया हो। उसके संकर्षण और राम नाम रखे गए। मातसो बन्धुओं को बुलवाया गया और उन्हें शौर्यपुर में प्रवेश दिया गया। राजा वसुदेव वहाँ रहते हैं और धनुर्वेद का गहन उपदेवा करते हैं। सौ शिष्यों से शोभित वह प्रसिद्ध श्रेष्ठ आचार्य हुए। इतने में विद्यार्थी के रूप में कंस आया। घर से निकाले हुए ओर अपमानित उसे गुरु वसुदेव ने स्वीकार कर लिया। उसने दानवों की दुर्दम देह का विदारण करने वाले अनेक शस्त्रों को सीखा। उसी समय किसी मनुष्य ने कहा और फिर चक्रवर्ती ने घोषणा भी की कि जो कोई भी सिंहरथ को बांधकर लाएगा, उसे जीवंजमा वधू के रूप में दी जाएगी।
१. अ, ब प्रतियों में यह छूटा है । २. अमुहलाउछु । ३. अ -- संवर । ४. सुपसिओ । ५. अ - ओह्रामण ।