________________
पउत्थो सम्गो]
वपिपु वेवरि सिहिवरग। पय देवह पियपर सुटुमण॥ छ पिय पसविय कंसहो अलविय' । मलयारिहि मागमा सुरेग पि: सत्तम् जगंवणु प्रोपरिच। धरे गाई मणोरह पइसरिउ । तहिं काले असोय वि देवइ वि। गाई मिलिय जउणगंगणइ वि॥ अवशेपर वायउ हमर । सो गंधहो वहपएं विग्ण बर।। मह फेरउ गम्भु भाए मरउ । तुहकेर गोउले संवरन । परिपालमि तं मिव अप्पणउ । एतिउ पक्षिवष्णु मसणज।। पिणिय आबासी हूय।
थासरि एपहिं जि पसूपउं॥ घसा-भानही विणि-बारहमए विणे सुहिहिं रितु महिमाण-सिह। उप्पणु जगणु प्रसुर विमद्दण कंसहो मस्था-सूल जिह ॥११॥
सयसीह-परकम् अतुलबलु। सिरि-लच्छण-लक्षिय-बच्छयल॥ सुहलक्षण-लक्जालंकिपर ।
अप्सरसय-वामंकियर। देवषि अतिमुक्तक के चरणों की वन्दना करके देवकी अपने घर संतुष्ट होकर गयौ । छह पुत्र उत्पन्न हए, किस को सौंप दिए गए, नंगमदेव के द्वारा बे मलयगिरि पर ले जाए गए। अब सातवें पुत्र का जन्म हुआ, मानो घर में मनोरथ ने प्रवेश किया हो । उस समय देवकी और मशोदा भी इस प्रकार मिली, जैसे गंगा और यमुना नदी मिली हों। उन दोनों में आपस में स्नेह बढ़ गया । तब नन्द की घरवाली ने वर दिया ---"हे आदरणीये ! मेरा गर्म नष्ट हो जाए, तुम्हारा गर्भ गोकुल में बढ़ता रहे । मैं उसे अपने बेटे की तरह पालूंगी। मेरी इतनी बात मान लो। वे अपने-अपने घर चली गयीं । एक दिन उनके प्रसब हुए।
घत्ता–शुक्ल पक्ष, भाद्रगद दारहवीं को, सुधीजनों के लिए अभिमान की ज्योति देता हुआ, असुरों का विमर्दन करनेवाले जनार्दन का इस प्रकार जन्म हुआ, जैसे कंस के मस्सक को शूल हो ॥११||
सौ सिंहों के समान पराक्रमबाले, अतुल बल नक्ष्मी के बिल से चिह्नित वक्ष, लाखों शुभ लक्षणों से अंकित, १०८ नामों से अकित, अपने शरीर की कान्तिलता से भवन को आलोकित १. ज, अ, ब-अलविय । मात्राओं के विचार से यह कड़वक गड़बड़ है। २. म, ब-संक्षण लछिय बच्छल ।
-
..--.---.