Book Title: Ritthnemichariu
Author(s): Sayambhu, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 161
________________ ܲܕ܃ [सयंभूव कए रिटुमिवरिए क्षणदिणे जववणे पइसरेवि । केलिहरे सुरयलील करेषि ॥ मंडेपि वप्पणी अल्लविय । मणियाविहे पासे परिनिय ॥ मायाविण अणिमिस- दिठ्ठी किय । वणदेवय णं पञ्चकख थिय ॥ उपाय कावि अम्वसिय । उणावर जिह् सापण्णतिय ॥ घत्ता - तह उध्वरिज पसाहणउ तं स उवोइयउ । देव पचय महु कि अच्छरिउ ण जोइयउ ॥ ४ ॥ भद्दिएण भाग भामिय भवणे पसारय पवज्जाणवणे ॥ अपणु सुछु मणोहरए । पित्तन्नवल - लताहरए ॥ रूपिणि हो पा गय। भय-सोहाधय ॥ लक्विइ भामिणि भगियए । घण- पोणपओहरणामियए । कर-वरणाणण-लोयण-कमले तरमान जाई लायष्णजले ॥ भजद व मतियत्तणेण । ण हिालद महि णषजोवणेण ॥ पेवेपि सच्हाम पमिया । कावि देव सविया ॥ चाही चीजें आ जाती हैं। दूसरे उपवन में प्रवेष करके में कामक्रीडा घार, श्रीकृष्ण ने रुमणी को सजाकर अलक्तक लगा दिया और उसे गणिवापिका के पान स्थापित कर दिया। मायावती ने अपनी दृष्टि अपलन कर लो, और ऐसी स्थिति हो गयी जैसे साक्षात् वनदेवी हो। उसकी अनोखी ही शोभा श्री । वह सामान्य स्त्री की तरह दिखायी नहीं देती श्री । धत्ता--जब रुक्मिणी का लेप (प्रसाधन) पूरा हो गया तो मधुसुदन सत्यभामा के पास पहुँचे और बोले - "मुझे देवी प्रत्यक्ष हुई हैं। क्या तुमने यह आश्चर्य नहीं देखा || ४ || मधुसूदन ने सत्यभामा को भवन में घुमाया और फिर विशाल उद्यानंधन में घुमाया। वह स्वयं प्रचुर पाल सुन्दर लतागृह में बैठ गये, कि जहाँ रुक्मिणी रूप की सीमा पार कर स्थित थी, जैसे वह कागदेव की सोभाग्य ध्वजा हो । अपने सघन और स्थूल स्तनों से नमित हुई, सत्यभामा ने उसे देखा जैसे वह कर, चरण, मुख और लोबनरूपी कमलों वाले सौन्दर्य के जल में तिर रही हो । कटिभाग की कुशता के कारण भग्न होती हुई-सी वह नवयौवन के कारण धरती को नहीं देखती । सत्यभामा ने उसे देखकर नमन किया, "यदि तुम सचमुच की कोई देवी

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