Book Title: Ritthnemichariu
Author(s): Sayambhu, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 198
________________ I परिशिष्ट ] [१६३ मत्स्यों और कछुओं से व्याप्त । मत्तत्थि टोहियाई - मतवाले हाथियों से प्रकम्पित । भी-तरंगभंगुराई- भय की लहरों से भंगुर मारुष्पवेबियाई दवाओं से प्रकम्पित । सुर-रासिबोहिमाई - सूर्य की किरणों के लिए बोहित (नाव) के समान | अहिणववासारितुहि-अभिनव वर्षा ऋतु में ३. कर- पुक्कर- रिचुंबिय पयंगु – हाथ की तरह सूंड से जिसने सूर्य को चूम लिया है (करपुष्करपरिचुंबित पतंग) दळतोसारिय-सुरग इंदु - दृढ़ दन्तोत्सारित सुरगजेन्द्र, जिसने अपने मजबूत दाँतों से ऐरावत को हटा दिया है । उद्धिरसणभीसणवार -- पराभव करनेवाला और भीषण रूप धारण करनेवाला साहारण- साधारण जाति का गजेन्द्र सो आर वह आरण, मारण्यक अर्थात् जंगली हाथी । ४. जोह - घोढा । चवचयति कहता है । परिअसे- परिरमण, आलिंगन में । ५. कुल-पीछे लगी। परिलिज - प्रतिस्खलित हो गया। खंडसरेण-क्षणान्तर में। क्कु पहुँचा। इंदिणु इन्द्रियों के वर्ष का दमन करने वाले । - - - अन्त । ६. खेड - खेद भूमि भूमिदेव ब्राह्मण। बिज पर – द्विजवर पंडरिय-गेहू-पंडरित गृह, भयखघर 1 चंप - चम्पानगरी। णिक्षम रिद्धिपत्त - निरुपम ऋद्धिपात्र । भूगोयर सय – भूगोचरशतानि सेकड़ों मनुष्य । मरट्ट - अहंकार | ७. कोइ अभिवाद्य ढोक्तिनि उपस्थित की गयीं । यल्लक्ष्य- -वल्लकी, बीणा । तंविज्जुशिरा कराग और पभ तीर्थकर चलखग - बहुलपक्ष नभ, कृष्ण पक्ष का आकाश । संवतार - मन्द है तारे जिसमें (आकाश), जिसके तार (स्वर) मन्द हैं. ( वीणा ) । ८. कुसुमाउहसरे हि — कामदेव के सरों से । जीवग्गगुत्तिए - जीवन को लेनेवाले कठघरेथें । तरुणोयणघणमवणेण-तरुणीजनों के स्तनों के मर्दन द्वारा फरगुणणंबोसर - फाल्गुन- नन्दीश्वर । सिरिवासुपूज्नजि-जत्त – श्रीवासुपूज्य जिन की यात्रा | 2. लक्ष्णजला ऊरिय विसोह-लावण्य जल से आपूरित दिशाओं का समूह। कसबें कौ के साथ। दुहिय - दुखिता । पूएं सूतेन सूत के द्वारा। शायद -- ध्यायति, ध्यान करता है । १०. मउम्मत - मदोन्मत्त | तिलोयग्गामी – त्रिलोक के अग्रभाग पर चलनेवाले । करेणु — हथिनी सहित । ११. कुमारकएण-- कुमारकृतेन कुमार के लिए पासेअ - प्रस्वेद । दाहिणि सुरहि मन्दुदक्षिण सुरभित मन्द (पवन) । माए – आदरणीये । सुसुत्त - सुख से सोते हुए । - तीसरा सगं १. कयि आकर्षित किया। याणहो घुमकी- स्थान से चूकी हुई। साय- विट्ठीनतक्षकगीष की दृष्टि के रामान । जियसामिणि अणुतग्गी-अपनी स्वामिनी के पीछे लगी हुई । २. कंषण मंचन – स्वर्णमंच से मदान्ध । धयरदुषि-- धूतराष्ट्र भी । करिणि चोपकरणी (हथिनी ) प्रेरित की। पडत-नगाड़ावावकों । सवर्णेवियहं श्रवणेन्द्रियों को ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204