Book Title: Ritthnemichariu
Author(s): Sayambhu, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 193
________________ १५०) [सयंभूएवकए रिटुणेमियरिए अंतर ताम परिष्टुिर पारख । एह पारायण पुत्तु नहारउ ॥ जो बालत्तणे असर रियउ । एन भणेवि महियलि मोपरियड ॥ घता--तपक्षणे महमहङ्गेण परिहरिवि घोर समरंगणु ! पिम्भरणेह-बसेण सई भुहि दिग्ण आलिगण ॥१५॥ इस रिटुमिचरिए धवलइयासिय सबभूवकए पञ्जुग्गमिलमणणो ___णाम बारहमो सग्गो ॥१२॥ -. तुम्हारा पुत्र है जिसका अपहरण बचपन में असुर ने किया था।" यह कहकर वह धरतीतल पर आ गये। पत्ता–मधुसूदन ने उसी क्षण घोर युद्ध-प्रांगण छोड़कर, परिपूर्ण स्नेह के वश होकर अपनी मुजाओं से उसे आलिंगन दिया ॥१५॥ इस प्रकार धवलहया के आश्रित स्वयंभूदेव कृप्त अरिष्टनेमिचरित में प्रद्युम्न-मिलन नामक बारहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥१२॥

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