Book Title: Ritthnemichariu
Author(s): Sayambhu, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 164
________________ मोमो ] तहि अवसरे धूमके असुर - कठिण - भुयजूयल - वियङ-उरु ॥ हे नंतही तो विमाणु वलिउ । चरसरीरोधरि चलिउ ॥ घसागर बालो उपरि देबि सिल 'वइवसगयरपल्लि तह । कालि कालसंवर गपणें सब कोलिज मेह जहि ॥८॥ " खयरवणि तक्खसिल सिंहरि भुक्क । विजाहर संवर नाम हक्क । तो मेहकूड उर- सामियहो । सकलसहो गय लगामिमहो ॥ जाणि विहंगणा वलेण । चिर परिवि एण खलेण ॥ अवहरि कलप्त महत्तणउ । तं वहरि हणेष्वज भई अव्पणउ ॥ अणि महाएबिहे करेवि । सोम विमाणही अधहरेषि ॥ गं गरुडेण णायकुमारु णि । अभूमि पिचितंतु थिज ॥ णज आयो जोविउ भवहरभि । सयमेव मरइ जिह तिह करमि १३ कठिन भुजयुगल और चिकट उरवाला धूमकेतु विद्याधर था । आकाश में जाते हुए उसका विमान स्खलित हो गया, वह चरमशरीरी के ऊपर नहीं चल सका । विभंग अवधिज्ञान के बल पर उसने जान लिया कि इस दुष्ट के द्वारा पूर्वभव में मेरा पराभव किया गया था। इसने मेरी पत्नी का अपहरण किया था, इसलिए मुझे अपने इस दुश्मन को मारना चाहिए। महादेवी ( रुक्मिणी ) को गहरी नींद में कर, उस बालक का विमान में अपहरण कर वह उसे उसी प्रकार ले गया जिस प्रकार गरुड़ साँप के बच्चे को ले गया हो। मरघट ( अतिभूमि) पर पहुँचकर वह विचार करता है – मैं इसके जीवन का अपहरण नहीं करूँगा, वैसा करूँगा जिससे यह खुद सर जाये । 2 १. भुयग्गलु । २. जयर पोलि हि । ६. [१२९ छत्ता---वह बालक के ऊपर वहाँ चट्टान रखकर चला गया कि जहाँ वश्वस नगर को बस्ती थी। उस अवसर पर कालसंवर आकाश में उसी प्रकार कीलित हो गया, जिस प्रकार शुक्र नक्षत्र द्वारा 'मेव ' कील दिया जाता है ||८|| विरवन में तक्षशिला में उसे छोड़ दिया। इतने में विद्याधर संबर वहाँ पहुँचा। तब मेघकूट नगर के स्वामी, आकाशगामी, पत्नीसहित विद्याधर कालसंबर का विमान कुमार के - - परिभमिछ । ४. अ-वयरु । ५ अवश्वस चमरि । ३. अ-खीलिउ मेह जिह। ७. ये दो पंक्तियाँ अ प्रति में नहीं हैं।

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