Book Title: Ritthnemichariu
Author(s): Sayambhu, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 110
________________ छटो सग्गो] भिरथोर महाभूयविवच्छ नागाविह णिवद्ध सिषय-कच्छ ॥ लायण-महाबलभरि भुपण मुह-ससहरकर - पंडुयिनायण ॥ चलचलणुच्चा लिय- अचलबीड । दामोधर उर- सिर-पसर-सीढ । अप्फोडण र बहिरिय विद्यत । कंसोरि गय णं बहू कयंत ॥ सधि जिहालय तेहि 'ताब | मंघरसंचार महाणुभाव ॥ सवालंकार - बिहूसियंग | तणि कावि अव्वभंग ॥ याहो किर मंडणउ णेइ । णारायण भायगु मंडु लेइ ॥ यत्ता - उद्दालिवि महुमहणेण गोवहं विष्णु पसाहणउ । लइ विजेवि तह जीवच चाणूरहो सणउ ॥5॥ योवंतरि विट्ठ महागदंतु । अणवरय - गलिय-मय सलिलषु ॥ विसमास णि सणि-सय-सम रउडु मय-सरि परिवाविय समुद्धु ।। गल्ल - गिल्ल मल्लरि बहिरिया । परिमस मेल्ला विय- अलि-सहत्सु ॥ ६७ महाबाहु थे और मानी विशालवृक्ष वाले नाना प्रकार के जलाशयों के तट से निर्मित कच्छा बाँधे हुए सौंदर्य के महाजल से विश्व को आपूरित करनेवाले थे। मुखचन्द्र की किरणों से जिन्होंने आकाश को अवल कर दिया था। जो पैरों से अचल पीठ को उछालने वाले हैं, जिन्होंने दामोदर के बक्ष और सिर का प्रसार ग्रहण किया है, और आस्फालन के शब्द से दिशाओं को बहरा बना दिया है ऐसे वे कंस के ऊपर ( की ओर ) गये मानो बहुत से यम हों । इतने में उन्होंने एक दासी को देखा जो धीरे-धीरे चलनेवाली और उदार आश्रयवाली थी। उसका शरीर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित था, उसकी सौन्दर्य-मंगिमा अपूर्व थी। वह अपने स्वामी के लिए प्रसाधन सामग्री लेकर जा रही थी । घसा – मधुसूदन ने वह प्रसाधन छीनकर ग्वालों को दे दिया, मानों चाणूर के प्राणों को विभवत करके उन्होंने ले लिया हो || || थोड़े अन्तर पर महागज दिखाई दिया, जिससे अनवरत मदजल की बूंदें भर रही थीं, जो विषम वज्र और सैकड़ों शनियों के समान रौद्र था, मद रूपी सरिता को वृद्धिगत करने के लिए मानो समुद्र था। भीतर से उमड़ते हुए मद से गण्डस्थल गीला हो रहा था और बाहर की झालर पर उन्मुक्त सौरभ ( गंघ ) पर हजारों भ्रमण मंडरा रहे थे। उसके दाँत काले लोहे के १. म - ताम ।

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