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[समभूएवकए रिट्टणेमियरिए केरकं कुणइ साह धुगइ॥ विए सोवइ अम्गाइ जामिणोहि ।
मा होसइ भज गोसामिमोहिं ।। घत्ता-णिति-समए जण इणु असुरविमद्दणु रणरसरहससएहि ।
परिवज्जियसोयहो रमयजसोयहो उट्ठा वेइ सयंभुएहि ॥१४॥
इय रिट्ठणेमिचरिए घबलल्यासिय सयंभूएवकए हरिकुलवंसुम्पत्ति
णामेण घउत्थाओ सग्गो॥४॥
चन्द्र और सूर्य ने भी । वह नगाड़ा बजाते हैं, घंटे का नाद करते हैं, केका ध्यान करते हैं, आहत बांसुरी बजाते हैं, दिन में सोते हैं, रात्रियों में जागते हैं कि गोस्वामिनी (मशोदा) को हर न लगे।
घसा-रात्रि के समय असुरों का विमर्दन करनेवाले जनार्दन रण के सैकड़ों रसों और होवाले अपने बालों से सबेरे उठते हैं और शोक से रहित यशोदा की रक्षा करते हैं ॥१४॥
इस प्रकार धवलइया के आश्रित स्वयंभूदेवकृत अरिष्टनेमिचरित में हरिकुलवंश
की उत्पत्ति नाम का चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥४||