________________
२०
रयणसार
नरकगति के ( दुक्खं ) दुःखों को ( भुंजइ ) भोगता है ( जिणदिट्ठ ) जिनेन्द्र ने कहा है ।
अर्थ - जो जीव जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजा, तीर्थवन्दना के अवशेष निर्माल्य द्रव्य को भोगता है वह नरक गति के दुखों को भांगता है। अर्थात् जो जीव लोभ या मोहवश पूजा दान आदि शुभकार्यों और जिनायतनों की रक्षार्थ प्राप्त धन या दान को ग्रहण कर स्वार्थ सिद्ध करता है वह महापापी नरक में जाता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
1
पूजा दान आदि के द्रव्य के अपहरण का परिणाम पुत्त- कलत्त - विदूरो, दारिद्दो पंगु मूक बहि- रंधो । चांडालाइ - कुजादो, पूजा दाणाइ दव्व हरो ।। ३३ ।।
-
अन्वयार्थ—( पूजा-दाणाइ ) पूजा दान आदि के ( दव्व-हरो ) द्रव्य को अपहरण करने वाला (पुत्त - कलत्त - विदुरो ) पुत्र - स्त्री रहित ( दारिद्दो) दारिद्र ( पंगु-मूक-बहि-रंधो ) लँगड़ा, गूँगा, बहरा, अंधा और ( चाण्डालाइ ) चाण्डाल आदि ( कुजादो ) कुजाति में उत्पन्न होता है।
अर्थ - जो लोभी जीव दान पूजा आदि के द्रव्य का अपहरण करने वाला है वह पुत्र - स्त्री से रहित दरिद्री, लँगड़ा, गूँगा, बहरा, अंधा और चाण्डाल आदि कुजातियों में उत्पन्न होता है ।
पूज- दान के द्रव्य का अपहरण बीमारियों का घर इच्छिद - फलं ण लब्भइ, जन लब्भइ सो ण भुंजदे णियदं । वाहीण- मायरो सो, पूया दाणाइ दव्व हरो ।। ३४ । ।
-
अन्वयार्थ – ( पूया- दाणाई - दव्व-हरो ) पूजा- दान आदि धर्म द्रव्य का अपहरण करने वाला ( इच्छिद) इच्छित ( फलं ) फल को ( पण ) नहीं (लम्भइ ) प्राप्त करता है ( जइ ) यदि (लब्भइ ) इच्छित फल को भी प्राप्त करे तो (सो) वह (णियदं) निश्चित
—
रूप से (भुंजदे ) भोगता (ण) नहीं हैं ( सो ) वह ( वाहीण- मायरो ) व्याधियों/ बीमारियों का घर बन जाता है ।