Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 60
________________ ५१ रयासार मिलता हो और दान देने वाले के लिए चाहे स्वर्ग का द्वार भी क्यों न बन्द हो जाय फिर भी सुपात्रों में दान देना धर्म है । सुपात्र में दान देने वाला ज्ञानी कहा गया, क्योंकि वह सुपात्र-कुपात्र को अच्छी तरह जानकर दान देता है तथा वह धन की दान-भोग व नाश तीन गतियों से भी परिचित हैं । ज्ञानी सुपात्र दान में ही दान करता है, अज्ञानी ख्याति-पूजा-लाम की भावना से पात्र-अपात्र सब में यदा-तवा दान करता है । ज्ञानी दान के फल को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार विषयासक्त होकर जो अपने को ज्ञानी संज्ञा से मंडित करता है वह संसार बढ़ाता है, जबकि विषयों का त्यागी, ज्ञानी ज्ञान का फल चारित्र धारण कर, आराधना की साधना से साध्य को सिद्ध कर मुक्ति पाता है। समकित-झान-वैराग्य औषधि भू-महिला-कणयाइ-लोहाहि विसहरं कह पि हवे। सम्मत्त-णाण-वेरग्गो-सह-मंतेण जिणुद्दिष्टुं ।।७५।। अन्वयार्थ-(भू ) पृथ्वी/भूमि ( महिला ) स्त्री ( कणयाइ ) स्वर्ण आदि के ( लोहाहि ) लोभरूपी सर्प और ( विसहरं ) विषधर सर्प को ( कहं पि हवे ) वह सर्प चाहे कैसा भी हो ( सम्पत्त-णाणवेरग्मो-सह मंतेण ) सम्यक्त्व-ज्ञान-वैराग्य रूपी औषधि और मंत्र से वश में किया जा सकता है । ( जिणुद्दिट्ट ) ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। अर्थ-भूमि-स्त्री-स्वर्ण आदि के लोभरूपी सर्प और भयानक विषधर सर्प भी वह कैसा भी क्यों न हो, सम्यक्त्व-ज्ञान और वैराग्यरूपी औषधि व मंत्र से वश में किया जा सकता है । अर्थात् संसार में जितना युद्ध झगड़ा है वह जड़, जोरू और जमीन का है। इन तीन का आसक्त जीव लोभरूपी सर्प से डसा जाकर एक नहीं अनेकों भव बिगाड़ लेता है जबकि महाविषधर के इस जाने पर उसका एक ही भाव बिगड़ता है।

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