Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 88
________________ ७९ रयणसार "परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचेगोत्रस्य" ।।२५।। जो जीव परनिन्दा-दूसरों के सच्चे या झूठे दोषों को प्रकट करता है, अपनी प्रशंसा करता है, दूसरों के गुणों को सहन नहीं कर पाता और सदा अपनी ही बड़प्पन या गुण प्रकट करता है वह नीच गोत्र का बंध करता है। धर्ममार्गसार ग्रंथ में आचार्य देव लिखते हैं--प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि हम सबसे बड़े हैं, दूसरा कुछ नहीं जानता। इस तरह डोंग मारना ठीक नहीं क्योंकि हजारों किरणों वाले सूर्य का छोटा सा छाला रोक देता है, वैसे ही बड़े-बड़े विद्वान, सभ्य, समझदार व्यक्ति भी छोटे से बच्चों द्वारा शिक्षा के पात्र हो जाते हैं। अत: किसी को भी परनिंदा, स्वप्रशंसा करना अच्छा/उचित नहीं है। सर्वथा अनुचित ही है - अर्थात् परनिंदक, आत्मप्रशंसक तथा जो खाने के लिए जी रहा है वह साधु सम्यक्त्व से विहीन हैं। पापी जीव चम्मट्ठि-मंस-लव-लुद्धो सुणहो गज्जए मुणिं दिट्ठा । जह तह पाविट्ठो सो धम्मिटुं दिट्ठा सगीयट्ठो ।।१०६।। अन्वयार्थ-( जह ) जैसे ( चम्मट्ठि) चर्म, अस्थि ( मंसलव-लुद्धो ) मांस के टुकड़े का लोभी ( सुणहो ) कुत्ता ( मुणिं ) मुनि को ( दिट्ठा ) देखकर ( गज्जए ) भोंकता है ( तह ) वैसे ही ( पाविट्ठो) जो पापी जीव है ( सो ) वह ( सगीयट्ठो) स्वार्थवश ( धम्मिट्ठ ) धर्मात्मा को ( दिवा ) देखकर भोंकता/कलह करता है। __ अर्थ-जैसे चर्म, अस्थि, मांस के टुकड़े का लोभी कुत्ता, मुनि को देखकर भोंकता है वैसे ही जो पापी जीव हैं वे स्वार्थवश धर्मात्मा को देखकर कलह करते हैं । यहाँ एक प्रश्न खड़ा होता है धर्मात्मा को देखकर पापी क्यों भोंकते हैं ? पापी जीव पाप में सुख मानते हैं । अपने भोगों में धर्मात्मा जीव कहीं बाधक नहीं बन जावे, कहीं त्याग की बात कहकर हमें अपने सुखोपभोग

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