Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 118
________________ रयणसार १०९ जिनलिंग मुक्ति का हेतु जिण-लिंग-हरो जोई, विराय-सम्मत्त-संजुदो णाणी । परमो उक्खाइरियो सिव-गइ-पह-णायगो होइ ।। १४४।। अन्वयार्थ—( जिण लिंग-हरो ) जिन लिंग का धारक ( विरायसम्मत्त संजुदो ) वैराग्य और सम्यक्त्व से संयुक्त ( पाणी ) ज्ञानी और ( परमोवेक्खाइरियो ) परम-उपेक्षा-भाव का धारक ( जोई ) योगी ( सिवगइ-पह-णायगो ) शिवगति का पथ नायक ( होइ ) होता है । अर्थ—जो योगी जिन लिंग का धारक हैं, वैराग्य और सम्यक्त्व से संयुक्त है, ज्ञानी है और परम उपेक्षा भाव का धारक है वह मोक्ष-पथ नायक होता है। ___ यहाँ आचार्य देव कहते हैं जिन लिंग ही मुक्ति मार्ग हैं, जिन लिंग धारक योगी ही मुक्ति का पात्र है गं वि सिज्झई वत्थधरो जिण सासणे जइ वि होइ तित्थयरो। गग्गो हि मोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्ने ।। २३अ.पा. || अर्थात् जिनलिंग ही एकमात्र मोक्षमार्ग है शेष सभी उन्मार्ग हैं। जो जिनलिंग के धारक योगी, संसार शरीर भोगों से विरक्त वैरागीपुत्र-स्त्री-मित्र आदि के स्नेह से रहित, ऊर्ध्व-मध्य-अधोलोक में कोई जीव मेरा नहीं है, मैं अकेला ही हूँ, इस प्रकार की भावना सहित, देव-शास्त्रगुरु के भक्त हैं, वैराग्य की परम्परा का विचार करते रहते हैं, सम्यग्दृष्टि हैं, स्व-पर भेद-विज्ञानी हैं, अपवाद मार्ग से रहित उपेक्षा बुद्धि से शुद्ध है अर्थात् उपेक्षा संयम में तत्पर है वे योगी मोक्ष-मार्ग के नेता होते हैं। . शुद्धोपयोग से मुक्ति बहि-रभंतर-गंथ विमुक्को, सुद्धोप-जोय-संजुत्तो। मूलुत्तर गुण पुण्णो, सिव-गइ पह-णायगो होइ ।।१४५।। अन्वयार्थ--( वहि-रन्भंतर ) बाह्य और अभ्यंतर ( गंध मूलनर गुणापुण्यो, संव-गह पायो होला

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