Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 126
________________ रयणसार ११७ मिथ्यात्व-रागादि की आधीनता से निज शुद्धान्मा की भावना से च्युत हुए जीव ने दो चीजें प्राप्त नहीं की - १. जिनस्वामी २. सम्यक्त्व । सम्यक्त्व शब्द से अभिप्राय-निश्चय से शुद्धात्मानुभूति लक्षणरूप वीतराग सम्यक्त्व और व्यवहार से वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सद् द्रव्यादि श्रद्धान रूप सग़ग सम्यक्त्व । ऐसा सम्यक्त्व इस जीव को अभी तक नहीं हुआ । सम्यक्त्व होने पर ही परमात्मा का भी परिचय होता है । सम्यक्त्व नहीं होने से परमात्मा का भी परिचय नहीं हुआ और स्व का परिचय भी नहीं अत: संसार परिभ्रमण बना ही रहा। सम्यग्दर्शन के समाव-अभाव का फल सम्म-दंसण-सुद्ध, जाब दुलभदेहि ताथ सुही। सम्मइंसण सुद्धं, जाव ण लभदे हि ताव अन्वयार्थ-( जाव-दु) जब तक ( सुद्धं सम्म-दसण ) शुद्ध सम्यग्दर्शन ( लभदे ) प्राप्त कर लेता है ( ताव हि ) निश्चय से तब ही ( सुही ) सुखी होता है ( जाव ) जब तक शुद्ध ( सम्म-इंसण) सम्यग्दर्शन ( लभदे ) प्राप्त ( ण ) नहीं कर लेता है ( ताव हिं) तभी तक ( दुही ) दुखी रहता है । अर्थ-यह जीव जब तक शुद्ध सम्यग्दर्शन नहीं प्राप्त कर लेता है, निश्चय से तब ही सुखी होता है और जब तक शुद्ध सम्यग्दर्शन नहीं प्राप्त कर लेता है, तभी तक दुखी रहता है। इस संबंध में भजन की कुछ पंक्तियां स्मरणीय हैंयही इक धर्म मूल है मीता, निज समकित सारस हिता । समकित सहित नरक पद वासा, खासा बुधजन गोता। तहते निकसि होय तीर्थकर, सुरगण जजत सप्रीता । यही... स्वर्गवास हु नीको नाहिं बिन समकित अविनीता तहँ तें निकसि एकेन्द्रिय उपजत, भ्रमत फिरत भवभीता ॥ यही...

Loading...

Page Navigation
1 ... 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142